221—2121—1221-212 |
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हमको तो खुल्द से भी मुहब्बत नहीं रही |
या यूं कहें कि पाक अकीदत नहीं रही |
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जाते कहाँ हरेक तरफ यार ही मिले |
उनसे जुदा तो कोई रियासत नहीं रहीं |
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उसने सभी मुआमलात ख्व़ाब कह दिए |
मेरी तो कोई बात हकीक़त नहीं रही |
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कितने बदल गए है सयाने ये आज के |
बातों में उनके आज कहावत नहीं रही |
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दुनिया के वासिते तो हमेशा थे बे गरां |
अब आपकी नजर में भी कीमत नहीं रही |
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ईमेल देख आज ये रुक्के ने कह दिया |
कासिद को आज मेरी जरुरत नहीं रही |
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ए.सी. में बैठ के वो करें प्लान मुल्क का |
अहले-वतन से इतनी इज़ाज़त नहीं रही |
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कोई दुआ सलाम, कोई हाल पूछ ले |
इतनी भी दौरे-नौ में शराफत नहीं रही |
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कल शाम क़त्ल उसका खुलेआम हो गया |
जो मुतमइन रहा कि अज़ीयत नहीं रहीं |
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मिलते नहीं है यार गले झूम झूम के |
अपनी भी उस तरह की तबीयत नहीं रही |
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Comment
आदरणीय सौरभ सर, ग़ज़ल पर आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. आपने सही कहा-
//मुतमइन वस्तुतः मुत्मइन की तरह लिखा जाता है, लेकिन इसे हमने मुतमईन की तरह लिखा और प्रयोग हुआ देखा है.//
दरअसल इस शब्द का बह्र में उच्चारण स्वमेव ही 'मुतमईन' हो जाता है यही कारण है कि मिसरे में गुनगुनाते हुए मुझे कहीं लय टूटती नहीं लगी. मैंने पिछली ग़ज़ल में 'मुतमईन' के रूप में ही इस्तेमाल किया था तब आदरणीय समर कबीर जी ने उसे सुधरवाया था. चूंकि ये शब्द बोलचाल में आम नहीं हुआ है इसलिए इसका मूल रूप में ही प्रयोग उचित लगा मुझे. आपके मार्गदर्शन से बात और स्पष्ट हो गई. आपका हार्दिक आभार. सादर नमन
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सर ये इस मंच और मंच के गुणीजनों के मार्गदर्शन की ही देन है कि बह्र में लफ़्ज़ों को रखना सीख गया हूँ. यह भी अवश्य है कि शायरी कहना एक अलग बात है और इस मुआमले में मैं जानता हूँ कि मेरे लिए हुनूज दिल्ली दूर अस्त
सादर
कोई दुआ सलाम, कोई हाल पूछ ले |
इतनी भी दौरे-नौ में शराफत नहीं रही |
मिलते नहीं है यार गले झूम झूम के |
अपनी भी उस तरह की तबीयत नहीं रही |
वाह ! बहुत खूब आदरणीय मिथिलेशभाईजी.
मुतमइन वस्तुतः मुत्मइन की तरह लिखा जाता है, लेकिन इसे हमने मुतमईन की तरह लिखा और प्रयोग हुआ देखा है. जैसे उम्मीद को ग़ज़लों में उमीद की तरह या सच्चाई को सचाई की तरह स्वीकारा जाता है.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपने सही कहा मिसरे में बह्र निभा नहीं पाया हूँ ---//जो मुतमइन था कि अज़ीयत नहीं रहीं//
इसमें था के स्थान पर रहा लेकर बह्र अनुसार संशोधित मिसरा निवेदित है-
कल शाम क़त्ल उसका खुलेआम हो गया
जो मुतमइन रहा कि अज़ीयत नहीं रहीं
मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार.... सादर
आ० मिथिलेश जी आप इतनी आसानी से गजल लिखते हैं , सचमुच रश्क होता है. सादर.
ख़ूबसूरत अश’आर हुए हैं आदरणीय मिथिलेश जी, दाद कुबूल करें।
जो मुतमइन था कि अज़ीयत नहीं रही
इस मिसरे में बह्र गड़बड़ा रही है। जाँच लें।
आदरणीय श्याम नरेन् वर्मा जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
बहुत खूबसूरत रचना के लिये आपको बधाई ॥ |
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