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दर्द (लघुकथा)

"दामादजी को छोड़ना चाहवे है, अरे! पति बिना भी कोई जगह होवे है औरत की।" पति को छोड़ मायके आयी बेटी को माँ समझाना चाह रही थी।
"माँ! मैं कोई भी काम कर अपनी बच्ची पाल लूँगीं लेकिन अब वापिस नही जाऊँगी।"
"ये क्या कह रही है तु छोरी, ऐसा आखिर क्या हो गया?"
बस माँ। मैं 'उस नशेबाज' को और बर्दाश्त नही कर सकती, सारा दिन बस पीना, हंगामा करना और.......।"
"तो क्या हुआ छोरी, तेरा बापू न पिये, मैंने तो न छोड़ दिया उसे।" माँ ने कुछ तमक कर बेटी की बात काट दी।
"हाँ माँ, नही छोड़ा तुने!" बेटी माँ की आँखो में झांकने लगी। "बस जलती रही... सुलगती रही..... राख के ढेर में कोयले की तरह।"
बेटी की आँखो में माँ के अतीत और अपने वर्तमान दोनो का दर्द झलकने लगा था।

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'विरेन्दर वीर मेहता' (मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 26, 2015 at 9:59pm

अच्छी प्रस्तुति हुई है - "बस जलती रही... सुलगती रही..... राख के ढेर में कोयले की तरह।" आदरणीय वीरेन्द्र वीर जी!

Comment by kanta roy on August 25, 2015 at 9:21am

"बस जलती रही... सुलगती रही..... राख के ढेर में कोयले की तरह।"...... यही तो होता आया है अब तक तभी तो वो सीता कहलाती है । अंतर्मन को झिकझोरती सार्थक रचना आदरणीय वीर मेहता जी । बधाई स्वीकार करें ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 25, 2015 at 3:44am

बहुत सुंदर लघुकथा ,आदरणीय वीरेंदर जी. कथा के मूल भाव को बहुत ही सुन्दरता से स्पष्ट किया है आपने. प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on August 24, 2015 at 10:52pm
आदरणीय अर्चना जी कथा पर आपके समय देने और मूल्यवान प्रतिक्रिया देने के लिये तहे दिल से आभार। आपके सुझाव का स्वागत है। मगर कथा के अंत मे दी गयी पंकत्तियां मुजे इस लिये अवाशयक लगी क्योकि यही सब दुःख बेटी भी सहन कर रही थी और यह इस अंतिम लाईन से स्पष्ट होता है। एक बार फिर से सादर आभार।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on August 24, 2015 at 10:44pm
आदः प्रतिभा जी बहुत सही कहा आपने अब कई ऐसी बाते जो मिथक बनती जा रही थी समाप्त हो रही है जो हमारे समाज के लिये बेहतर समय का आभास दिलाता है।कथा पर आपके समय देने और आगमन के लिये सादर आभार।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on August 24, 2015 at 1:34pm
आदः ओमप्रकाश जी रचना पर आपके आगमन के लिये दिल से आभार।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on August 24, 2015 at 1:30pm
आदः मिथिलेश भाई जी कथा पर प्रतिक्रिया देकर हौसला अफजाई करने के लिये आपका सादर आभार।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on August 24, 2015 at 1:28pm
आदः राजेश कुमारी जी कथा पर समय देने और हौसला अफजाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया।
Comment by pratibha pande on August 24, 2015 at 9:13am

 'उस घर से अब बस तेरी अर्थी ही निकले' , जैसी बातों से हम धीरे धीरे अब बाहर आ रहे हैं ये अच्छा संकेत है , इस सशक्त रचना के लिए आपको  बधाई आ० वीरेन्द्र जी

Comment by Omprakash Kshatriya on August 24, 2015 at 6:53am
आ वीरेंद्र जी बहुत ही सुन्दर व सन्देश परख रचना हुई है । हार्दिक बधाई आप को ।

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