बहर - 2212 1212 22 1212
वो भ्रम तुम्हारे प्यार सा बेहद हसीन था
सपनों के आसमान की मानो जमीन था
सारी थकान खींच ली गोदी में लेटकर
बच्चा वो गीत रूह का ताजातरीन था
हर खत में अपनी खैरियत, उसको दुआ लिखी
माँ यह कभी न लिख सकी, कुछ भी सही न था
मन, प्राण, आँख द्वार पर, बेकल बिछे रहे
कुनबा तमाम जुड़ गया, आया वही न था
अँजुरी मेरी बँधी रही और सारा रिस गया
वो प्यार रेत से कहीं ज्यादा महीन था
सूरज बगैर हर दिशा को रौदता रहा
जो शख्स धुंध बन गया, बेहद जहीन था
मैं फलसफों के व्यूह में, बस फँस के रह गया
वो सिलसिला शुरू हुआ तो अन्तहीन था
मैंने किसी के घाव पे मरहम लगा दिया
तुम क्यों बिखर गए तुम्हें मुझ पर यकीन था
----- सुलभ अग्निहोत्री
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
Samar kabeer जी ! एक मिसरा भी बहर से खारिज नहीं है। कृनया बहर देख लें। जहाँ तक सवाल काफिये का है - तो मेरा निश्चित मत है कि तुक या काफिया भी उच्चारणा और ध्वनि का विषय है, न कि शब्द और उसके अर्थ का। उसी तरह जैसे मात्रा-गणना (तक्तीय) उच्चारण का विषय है, मिसराा लिखा कैसे जाएगा यह नहीं देखा जाता। इस दृष्टिकोण से ‘सही न’ और ‘वही न’ में मुझे कोई दोष नहीं दिखाई देता।
गजल की क्लास मैं पढ़ चुका हूँ, जितनी आत्मसात करने लायक थी कर चुका हूँ।
एक विनम्र सलाह - देवनागरी में उठाऐं गलत है, इसे उठायें या ‘उठाएँ’ लिखा जाएगा। कृपया सुधार लें। -- सादर !
मिथिलेश वामनकर जी मेरी बहर तो वही है जो मैंने लिखी है,हाँ पढ़ उसे आप उस बहर में भी सकते हैं जो आपने बताई है - बस चैथे शेर में पर की जगह पे करना पड़ेगा।
देखिये जान गोरखपुरी जी ने सही पकड़ी थी।
बहुत-बहुत आभार Harash Mahajan जी !
बहुत-बहुत आभार जान गोरखपुरी जी ! जी, आपका अन्दाजा सही है बहर के संबंध में।
आपके निर्देश का पालन कर दिया है मिथिलेश वामनकर जी !
लाजव़ाब! लाजव़ाब! क्या कहने जिंदाबाद गज़ल हुयी है दाद ही दाद पेश है ! आ० सुलभ जी आ० मिथलेश सर की बात पर अवश्य गौर फरमाएं! मंच पर मेरे जैसे गज़ल सीखने वाले बहुत से नवाभ्यासी है..बह्र लिखने से हमारे लिए आसानी हो जाती है! जहाँ तक मै समझ पा रहा हूँ गज़ल की बह्र २२१२ १२१२ २२१२ १२ है!
आपसे विशेष निवेदन है कृपया बह्र / वज्न लिखने की कृपा करें..... ये मंच की परंपरा रही है जो अब अनुशासन की श्रेणी में माना जाता है. सादर निवेदन पुनः पुनः
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