सच कहने की हलफ़ उठाई
अपनों से दुश्मनी निभाई
जिसके हाथ तुला दी उसने
पल्ले में पासंग लटकाई
दीपक तले अंधेरा देखा
देखी रिश्तों की गहराई
हम भी बर्फ़-बर्फ़ हैं केवल
जब से पाई है ऊँचाई
शेर कटघरे के अन्दर हो
कुछ ऐसे ही है सच्चाई
अपने ही दुखड़ों में खोये
कैसे पढ़ते पीर पराई
फूट पड़ा आवेग पिघलकर
जब सावन की पाती आई
जिसने कपड़े आप उतारे
उसको कैसी जगत हँसाई
मुथरी है तलवार भले ही
लेकिन दिल है हातिमताई
मौलिक एवं अप्रकाशित
- सुलभ अग्निहोत्री
Comment
हम भी बर्फ़-बर्फ़ हैं केवल
जब से पाई है ऊँचाई
फूट पड़ा आवेग पिघलकर
जब सावन की पाती आई
उपर्युक्त इन दो शेरों ने तो बस मोह लिया, आदरणीय सुलभभाई.
इसग़ज़ल केलिए दिल से दाद कह रहा हूँ
अलबत्ता यह शेर, विशेष कर सानी, एक नज़र और चाहता है, भाईजी.
जिसके हाथ तुला दी उसने
पल्ले में पासंग लटकाई
पासंग वैसे भी पुल्लिंग शब्द है जो अकसर चढ़ाया या लटकाया जाता है.
बहुत-बहुत आभार, Rahul Dangi जी !
बहुत-बहुत आभार, आदरणीय JAWAHAR LAL SINGH जी !
बहुआयामी गजल प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सुलभ अग्निहोत्री जी! शेर जो मुझे पसंद आये
हम भी बर्फ़-बर्फ़ हैं केवल
जब से पाई है ऊँचाई....ग़जब!
बहुत-बहुत आभार, आदरणीय Dr. Ashutosh Mishra जी !
आदरणीय सुलभ जी ..इस ग़ज़ल के कई शेर पसंद आये ..आज पहली बार आपको पढने का मौका मिला ..रचना हेतु ढेर सारी बधाई सादर
बहुत-बहुत आभार, आदरणीय Manan Kumar singh जी !
बहुत-बहुत आभार, आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी !
बहुत-बहुत आभार, आदरणीय Sushil Sarna जी !
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