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ग़ज़ल की कोशिश

1212-1122-1212-22
--------------------
.
यकीन कर लो समन्दर में आब-रूद नहीं
जवान दिल में अगर कोई मौज-ए-दूद नहीं
.
जुनून-ए-इश्क़ भी ढ़लता है रोज़-ए-वस्ल के बाद
ये कहकशाँ भी हक़ीक़त में बे-हुदूद नहीं
.
मैं तेरी गर्मी-ए-हिजरत से भी हूँ वाबस्ता
मेरा वुजूद कोई बर्फ का जुमूद नहीं
.
ब-रोज़-ए-हश्र ऐ दिल तेरा वह'म टूटेगा
तू सोचता, तेरे आमाल के शुहूद नहीं
.
तवील दौर है गर्दिश का तेरी क़िस्मत में
कि तेरा ताब-ओ-तवाँ खोना फ़ेल-ए-सूद नहीं
.
किताब-ए-वक़्त के औराक़ पर लिखा है यही
सिवा ख़ुदा के यहाँ कुछ नुमूद-ओ-बूद नहीं
.
सुकून-ए-दिल भी मिलेगा जहाँ की खुशियाँ भी
ख़ुदा के दर से उठे गर सर-ए-सुजूद नहीं
.
दिनेश अपनी ज़िया पर न तुम ग़ुरूर करो
कि बिन अँधेरे तुम्हारा भी कुछ वुजूद नहीं
-----
.
मौलिक व अप्रकाशित
.
आब-रूद = river water ; मौज-ए-दूद = wave of love ; जुमूद = freeze ; सर-ए-सुजूद = head bowed in prayer ; आमाल = कर्म ; शुहूद = ग़वाह ; तवील = लम्बा ; फ़ेल-ए-सूद = profitable act ; नुमूद-ओ-बूद = that was in present and past

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Comment by Ravi Shukla on August 3, 2015 at 1:50pm

आरणीय दिनेश जी मतले पर थोड़ा मार्गदर्शन चाहेंगे

हमने दूद को धुएं के सन्‍दर्भ मे ही पढ़ा है इस लिहाज से मौज ए दूद तो धुए की लहर हुई और आप इसे प्‍यार की लहर के रूप मे कह रहे है । गालिब ने भी कहा है ......  या चरागे दूद । जो भी तेरी बज्‍़म से निकला परीशां निकला ।। आपके द्वारा क्लिष्‍ट अल्‍फाज के माअनी देने के बाद हमारे दिल में ये ख्‍याल आया है । क्षमा चाहते है, आशा है अन्‍यथा न लेकर हमरी शंका का समाधान करेंगे ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 3, 2015 at 1:11pm

आदरणीय दिनेश भाई जी, शानदार ग़ज़ल हुई है. इस ग़ज़ल ने मुग्ध कर दिया. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

ये ग़ज़ल जब सामने आई तो हम लुगत की जुगत में लग गए तब तक ग़ज़ल गायब हो गई. समझ आ गया कि आपने ग़ज़ल एडिट कर दी है. फिर नजर नहीं आई. अभी आदरणीय रवि जी के कमेन्ट के कारण लेटेस्ट एक्टिविटी में नज़र आ गई. नहीं तो इस शानदार ग़ज़ल से आनंद ही नहीं ले पाते. सादर 

Comment by Ravi Shukla on August 3, 2015 at 12:14pm

आरणीय दिनेश जी

बर बस ही हर शेर पर वाह वाह निकलती रही

शेर दर शेर दाद कुबूल करें

काफिया की बहार देखते ही बनती है 

किसी एक शेर का जिक्र करना नाइंसाफी होगी

फिर भी

जुनून-ए-इश्क़ भी ढ़लता है रोज़-ए-वस्ल के बाद
ये कहकशाँ भी हक़ीक़त में बे-हुदूद नहीं

ये शेर

और ग़जर का मकता दोनो  हमे बहुत पंसद आये

आभार ।

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