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" इतने पैसे नहीं हैं मेरे पास , सोच समझ कर माँगा और खर्च किया करो ", पति की आवाज़ उसके मन को मथ रही थी | काश उसने भी नौकरी की होती तो आज पार्टी के लिए पैसे मांगने की नौबत तो नहीं आती | यही सब सोचती किचन की ओर बढ़ी थी कि अचानक उसके कदम ठिठक गए | दरवाजे से उसकी नज़र पड़ गयी थी कामवाली पर जो नीचे रखे प्लेट्स में से निकाल कर पूरी वगैरह अपने पल्लू में बांध रही थी |
फिर उसने एक प्लेट में ढेर सारा खाने का सामान रखा और थोड़ी दूर से आवाज़ लगायी " बाई , ये प्लेट भी धुलने में रख देना "|
उसे बाई को सीधे खाना देना पता नहीं क्यों ठीक नहीं लगा |
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on July 17, 2015 at 11:15am

बहुत बहुत आभार आदरणीय तेज वीर सिंह जी , आपकी लघुकथा पर उपस्थिति से उत्साह बढ़ गया मेरा , सादर..

Comment by TEJ VEER SINGH on July 17, 2015 at 10:04am

आदरणीय विनय जी,वाह, भीख का कितना सटीक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है!नायिका का अपनी मनोदशा को बाई से जोड कर देखना, बहुत ही मार्मिक कथा बनी है!हार्दिक बधाई!

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