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"बाऊजी ! बच्चों के इम्तहान शुरू हो रहे हैं ।आपकी बहू चाहती थी , बेहतर होता अगर आप कुछ रोज़ भाईसाहब के यहाँ हो आते ।"
" पर बेटा ! अभी तो समय पूर्ण होने में दो माह बाकी हैं ।"
" वो तो ठीक है , पर आप तो जानते हैं , घर में एक ही अतिरिक्त कमरा है , वो भी ......।"
" कबाड़ी वाला ....कबाड़ी ....। बाऊजी ! कुछ कबाड़ है क्या ? "
"हाँ है तो.... शायद तुम्हारे बाजार में भी इसका कोई मोल न होगा...।"
मौलिक व अप्रकाशित ।

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2015 at 6:17pm

आ० शशि जी

आ० विनय जी का सुझाया विकल्प बहुत  ही सुन्दर है और शिल्प की  दृष्टि से भी बहुत प्रभावी है आप भविष्य के लिए इससे मार्ग दर्शन अवश्य लें . सादर .

Comment by shashi bansal goyal on June 11, 2015 at 6:09pm
हार्दिक आभार एवं धन्यवाद आद0 रीता जी ।
Comment by Rita Gupta on June 11, 2015 at 5:45pm

 बधाई शशि जी ,एक एक शब्द ने अपना रोल कथा में बाखूबी निभाया है .सुंदर लघु कथा .

Comment by shashi bansal goyal on June 11, 2015 at 4:50pm
हार्दिक आभार एवं धन्यवाद आद0 डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी एवं आदरणीय विनय जी । आपने मेरी रचना को अमूल्य समय एवं सुझाव दिया इसके लिए मैं तहे दिल से आभारी हूँ । मेरे पास गुणीजनों के दो कीमती सुझाव हैं और दोनों ही बहुत सार्थक है । दोनों गुणीजनों का मान भी मना रहे और दुसरे सदस्य आपके इन बहुमूल्य सुझावों को भी जान सके इसलिए मैं अन्त को यथावत रखते हुए आपकी सुझावों को संज्ञान में ले रही हूँ । कृपया इसे मेरी धृष्टता न समझकर आप दोनों के प्रति विनम्र सम्मान समझे । कहते समय यदि कुछ गलत लगे तो कृपया नौसिखिया समझ कर माफ़ कर दीजिये । सादर ।
Comment by विनय कुमार on June 11, 2015 at 2:48pm

बहुत उम्दा लघुकथा , बधाई आदरणीया शशि बंसल जी | बस एक सुझाव , अंतिम पंक्ति ऐसी भी हो सकती है
// बाउजी ने बेटे की ओर कातर निगाहों से देखा , बेटा अभी भी कबाड़ी की ओर देख रहा था //..

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2015 at 11:31am

अंत में कुछ अपार्थ सा रह गया . विषय अच्छा था .भाषा के विन्यास में कुछ बहक सा गया.

" कबाड़ी वाला ....कबाड़ी ....। बाऊजी ! कुछ कबाड़ है क्या ? "
" हाँ है तो पर जब बेटा ही  मोल नहीं  समझ सका तो फिर ---?

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