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मेरा मन माली सा हो गया

टूट टूट के अपना दिल कुछ जाली सा हो गया

अंतरमन का वो कोना कुछ खाली सा हो गया

 

वस्ल की निगाहें हो गयी, दोस्ती की आड़ में

नारी होकर जीना अब कुछ गाली सा हो गया

 

नजरों में घुली शराब, चाचा मामा भाई की

आँखों में हर रिश्ता, अब कुछ साली सा हो गया

 

गर्दिश में लिपटी कनीज़, सहारे की तलाश में

मन अकबर शज़र का भी, कुछ डाली सा हो गया

 

शोर में दब के रह गयी आबरू की आवाज

चीखती ललना का स्वर, बस ताली सा हो गया

 

हारकर जब उसने सर रखा था मेरे काँधे पर 

कैसे बताऊँ “निधि” मेरा मन माली सा हो गया 

निधि अग्रवाल 

मौलिक और अप्रकाशित 

Views: 672

Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 13, 2015 at 11:43pm

आ० निधि ज़ी सर्वप्रथम इस बेहतरीन रचना पर हार्दिक बधाई,आप के ख्यालात बहुत ही साफ है,मतलब उधेड़बुन नही है,आप सटीक लिखती है,आप की रचनाओं में ताजगी का यही मूल है,बहर में लिखने का प्रयास ज़ारी रक्खें मै ये अवश्य कहना चाहूँगा आगे आपकी मर्जी सादर !

Comment by kanta roy on June 11, 2015 at 10:35pm
नारी मन को इतने सुंदर शेरों में व्यक्त करना आज शायद पहली बार ही पढा है मैने । सच ही कहा है और बेमिसाल ही कह गई आप आदरणीया निधि अग्रवाल जी .......अब तो मेरा मन भी पढकर इसे माली सा हो गया ।
Comment by shree suneel on June 11, 2015 at 11:36am
हारकर जब उसने सर रखा था मेरे काँधे पर
कैसे बताऊँ “निधि” मेरा मन माली सा हो गया..
अच्छी प्रस्तुति आदरणीया निधि जी. बधाई आपको.
Comment by narendrasinh chauhan on June 10, 2015 at 2:44pm

बहोत खूब भाव पूर्ण रचना

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 12:57pm

अच्छी गजल है , बेहतरीन . सुन्दर . अखरा तो केवल यह-

हर रिश्ता अब कहीं न कहीं, कुछ नाली सा हो गया

 

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 10, 2015 at 12:07pm
आदरणीया निधि अग्रवाल जी भावपक्ष बहुत ही उम्दा है "कुछ नाली" सा हो गया वाक्य विन्यास की दृष्टि से थोड़ा अखरता है "सारा रिश्ता ही कुछ कुछ नाली सा हो गया ज्यादा बेहतर होगा देख लें इस उम्दा रचना के लिये बधाई आपको।
Comment by Nidhi Agrawal on June 10, 2015 at 11:13am

आदरणीय वीनस जी .. मुझे बह्र में लिखना नहीं आता .. बनता ही नहीं 

जब भी बह्र में लिखने की कोशिश की .. रचना के भाव बदल गए.. इसलिए जब भी रचना का भावपक्ष सशक्त होता है मैं पद के वज्न का ख्याल रखने की कोशिश करती हूँ .. बहुत कम बार मैं किसी बहर में लिख पायी .. इसलिए अगर रचना पढ़ कर बहर पहचान न पाने की शिकायत है तो माफ़ करें क्योंकि मैंने कोई बहर पकड़ कर नहीं लिखा है वीनस जी

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on June 10, 2015 at 10:36am

स्ल की निगाहें हो गयी, दोस्ती की आड़ में

नारी होकर जीना अब कुछ गाली सा हो गया

 

नजरों में घुली शराब, चाचा मामा भाई की

हर रिश्ता अब कहीं न कहीं, कुछ नाली सा हो गया...

बहुत ही खूबसूरत और भावपूर्ण....

रचना के लिए सादर बधाई स्वीकार करे आदरणीय निधि अग्रवाल जी 

 

Comment by वीनस केसरी on June 10, 2015 at 1:24am

शोर में दब के रह गयी आबरू की आवाज

चीखती ललना का स्वर, बस ताली सा हो गया

वाह बहुत खूब

रुक्न या मात्रा लिख दिया करें तो बहर समझने में आसानी हो जाती है
सादर

Comment by somesh kumar on June 9, 2015 at 11:06pm

पूरे पुरुषीय समाज की मानसिकता को उधेड़ कर रख दिया ,निधि जी ,बधाई |

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