धीरे से कहा जो तुमने,
वो मेरे मन ने सुन लिया।
तुम नहीं थे समीप मेरे,
फिर भी मैंने तुम्हें देख लिया।
अधरों पर थी बात ही और,
जिसका अर्थ हृदय ने समझ लिया।
तुम भूले नहीं थे मुझे,फिर भी
तुमने भूलने का-सा अभिनय किया।
है निवास हृदय में मेरा ही,
किन्तु कुछ और ही दिखला दिया।
सोचा करते हो केवल मुझे,
पर काम कुछ और बता दिया।
कहते हो कि कुछ भी नहीं,
पर अधिकार अपना जता दिया।
मेरी समीपता से ही होते हो
विचलित,स्वभाव इसे बता दिया।
नेत्रों में बसी है मेरी ही छवि,
पर चित्र कुछ और बना दिया।
आते हैं स्वप्न मेरे ही तुम्हें,
किन्तु इस सत्य से मना किया।
मुझे देख होते हो अनियंत्रित,
तभी मुझसे दूर एकांत लिया।
जिस प्रेम ने किया अधीर तुम्हें,
मानो,वो प्रेम तुमने मुझसे है किया।
'सावित्री राठौर'
[मौलिक एवं अप्रकाशित]
Comment
इस रचना के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
अधिक आत्मविश्वाश भी छलावा है
पेडो की रगड़ से उत्पन्न दावा है
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