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धीरे से कहा जो तुमने,
वो मेरे मन ने सुन लिया।
तुम नहीं थे समीप मेरे,
फिर भी मैंने तुम्हें देख लिया।

अधरों पर थी बात ही और,
जिसका अर्थ हृदय ने समझ लिया।
तुम भूले नहीं थे मुझे,फिर भी
तुमने भूलने का-सा अभिनय किया।

है निवास हृदय में मेरा ही,
किन्तु कुछ और ही दिखला दिया।
सोचा करते हो केवल मुझे,
पर काम कुछ और बता दिया।

कहते हो कि कुछ भी नहीं,
पर अधिकार अपना जता दिया।
मेरी समीपता से ही होते हो
विचलित,स्वभाव इसे बता दिया।

नेत्रों में बसी है मेरी ही छवि,
पर चित्र कुछ और बना दिया।
आते हैं स्वप्न मेरे ही तुम्हें,
किन्तु इस सत्य से मना किया।

मुझे देख होते हो अनियंत्रित,
तभी मुझसे दूर एकांत लिया।
जिस प्रेम ने किया अधीर तुम्हें,
मानो,वो प्रेम तुमने मुझसे है किया।

'सावित्री राठौर'
[मौलिक एवं अप्रकाशित]

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 24, 2015 at 12:04pm

इस रचना के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 24, 2015 at 11:11am

अधिक आत्मविश्वाश भी छलावा है

पेडो की रगड़ से उत्पन्न दावा है

Comment by मनोज अहसास on May 24, 2015 at 10:04am
भाव पूर्ण रचना
बधाई
सादर

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