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" अंकल " , बस यही आवाज़ निकल पायी थी उसके मुँह से |
पहले भी यही आवाज़ निकलती थी , पर वो आवाज़ ख़ुशी की होती थी |
आज वो अपनी सहेली के घर बिना फोन किये आई , और अब अस्पताल में बेसुध पड़ी थी |
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 10, 2015 at 10:11pm
सफल लघुकथा। बधाई।
एक कड़वा सत्य जो झंकझोर देता है।
Comment by shree suneel on May 10, 2015 at 4:11pm
चंद पंक्तियों में नैतिक पतन का भयावह दृश्य...
आदरणीय विनय जी, सार्थक प्रस्तुति के लिए बधाई.
Comment by विनय कुमार on May 10, 2015 at 3:05pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी | आपकी टिप्पणी नया मनोबल भर देती है लेखक में |

Comment by विनय कुमार on May 10, 2015 at 3:04pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय जीतेन्द्र पस्तरीया जी | इधर कुछ दिनों से बाहर था इसलिए लिख नहीं पाया | आपकी प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ा देती है |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 10, 2015 at 12:43pm

आह--------------वाह-------------------

विनय जी

अवाक कर देती रचना  और क्या शिल्प है  ! सादर .

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 10, 2015 at 11:54am

मन को झंझोड़ कर रख देती , लघुकथा .आदरणीय विनय जी. सच! ही है चेहरे पर कुछ लिखा नही होता. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें ,आदरणीय विनय जी.   बहुत दिनों के बाद आपकी लघुकथा पढने को मिली..

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