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गुज़रा ज़माना

वो ज़माना ही कुछ और था
हौसलों और उम्मीदों का दौर था !

आसमां के सितारे भी पास नज़र आते थे!
हर हद से गुज़र जाने का दौर था!!

माना कि मुफलिसी भरी थी वो ज़िन्दगी!
उस ज़िन्दगी में जीने का, मज़ा ही कुछ और था!!

नींद आती नही महलों के नर्म गद्दों पर!
झोपडी के चीथड़ों पर सोने का, मज़ा ही कुछ और था!!

न जाने क्यों हर वो शख़्स ख़फ़ा ख़फ़ा सा नज़र आता है!
मुस्कुराकर कर जिनसे गले लग जाने का,मज़ा ही कुछ और था!!

अब तो दिल की बातें दिल में ही रह जाती हैं!
बड़ी बेबाकी से हर बात कह देने का, ज़ज़्बा ही कुछ और था!!

(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

माला झा "खुशबू"

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 2, 2015 at 1:52pm

माला जी इस सुंदर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Mala Jha on May 2, 2015 at 8:36am
आदरणीय डॉ विजय शंकरजी साभार धन्यवाद।मेरे मनोभावों को समझने के लिए तहे दिल से आपका शुक्रिया।
Comment by Mala Jha on May 2, 2015 at 8:31am
प्रिय महिमाश्री जी बहुत बहुत धन्यवाद।
Comment by Mala Jha on May 2, 2015 at 8:28am
साभार धन्यवाद आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी।
Comment by Mala Jha on May 2, 2015 at 8:27am
आदरणीय श्री सुनीलजी सादर धन्यवाद।
Comment by shree suneel on May 2, 2015 at 1:27am
आदरणीया माला झा जी, बीते दिनों की याद दिलाती इस रचना के लिए बधाई आपको. मैं आदरणीय विजय शंकर सर से सहमत हूँ.
इस सुन्दर रचना के लिए पुनः बधाई.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 1, 2015 at 8:45pm

सुन्दर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया माला जी 

Comment by MAHIMA SHREE on May 1, 2015 at 7:18pm

बहुत सुंदर प्रवाह है इस प्रस्तुति में... बहुत बहुत बधाई  आपको

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 1, 2015 at 6:57pm
प्रायः कष्ट के दिनों की स्मृतियाँ बड़ी सुखद और मीठी होती हैं ,और उनकीं खुशबू कहीं जाती नहीं , साथ रहती है.
भावपूर्ण, बहुत सुन्दर रचना , आदरणीय सुश्री माला झा ' खुशबू' जी, बधाई , सादर।
Comment by Mala Jha on May 1, 2015 at 3:12pm
कृष्णा मिश्रा जी साभार धन्यवाद।त्रुटियों को ठीक करने की कोशिश करुँगी।

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