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ग़ज़ल :- कहीं थे बाज़ू कहीं बदन था

बह्र :- फ़ऊल फ़ैलुन फ़ऊल फ़ैलुन

कहीं थे बाज़ू कहीं बदन था
हिजाब आलूद पैरहन था

निगाह ख़ंजर बनी हुई थी
नज़र हटाई तो गुलबदन था

कहाँ तलक उससे बच के चलते
वो डाली डाली चमन चमन था

समझ के गुलशन की बात की थी
मुराद मेरी तिरा बदन था

सालीक़ा लाओगे वो कहाँ से
सुना है फ़रहाद कोहकन था

हर एक मंज़िल पे देखा जाकर
वही सितारा वही गगन था

भला सा लगता था उन दिनों में
तिरी अदा में जो बांकपन था

अभी "समर" की बिसात क्या है
कभी तुम्हारा वो जान-ए-मन था


"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on April 30, 2015 at 10:37am
जनाब मनोज कुमार अहसास जी ,आदाब ,ग़ज़ल में शिर्कत और हौसला अफ़ज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |

"समझ के गुलशन की बात की थी
मुराद मेरी तिरा बदन था"

यह ग़ज़ल का बहुत ही नाज़ुक शैर है, "मुराद" का मतलब यहाँ दुआ या ख़्वाहिश नहीं बल्कि "इशारा" है |
Comment by Samar kabeer on April 30, 2015 at 10:28am
जनाब श्याम नारायण वर्मा जी,आदाब,ग़ज़ल की सराहना हेतु आपका आभारी हूँ |
Comment by Samar kabeer on April 30, 2015 at 10:25am
जनाब श्री सुनील जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 30, 2015 at 3:27am

आदरणीय समर कबीर जी खूबसूरत ग़ज़ल के लिये बधाई ....सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 30, 2015 at 1:42am
आदरणीय समर कबीर साहेब , नमस्कार , बहुत ही खूबसूरत , शृंगारिक प्रस्तुति है, बहुत बहुत बधाई, सादर।
Comment by narendrasinh chauhan on April 29, 2015 at 5:54pm

बहुत उम्दा ग़ज़ल

Comment by मनोज अहसास on April 29, 2015 at 3:53pm
नमस्कार सर फरहाद भी और बदन की मुराद भी दोनों एक ही ग़ज़ल में
वाह कमाल हो गया
बहुत खूब
Comment by Shyam Narain Verma on April 29, 2015 at 3:15pm
बहुत खूब , पूरी ग़ज़ल बहुत उम्दा है , बहुत बहुत बधाई, सादर ,
Comment by shree suneel on April 29, 2015 at 1:40pm
आदरणीय समर कबीर सर, क्या ख़ूब ग़ज़ल कही आपने. मज़ा आ गया. सारे अशआर ख़ूबसूरत हैं.
सालीक़ा लाओगे वो कहाँ से
सुना है फ़रहाद कोहकन था

हर एक मंज़िल पे देखा जाकर
वही सितारा वही गगन था.. ख़ूब. . बधाई आपको.

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