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नक़ाब (लघुकथा)

" अब्बू ,ये नकाब और ये बुर्का? मैं नहीं पहनूंगी बस। "कहते हुए नीलोफर बाहर निकल गयी।
"क्या आप भी नीलोफर के अब्बा।ज़माना बदल गया है।आप भी बदल जाइए न।"
"कैसे बताऊँ तुमलोगों को बेग़म। ज़माना बिलकुल भी नहीं बदला है।बल्कि और भी बदतर हो गया है लड़कियों के लिए।"
कहते हुए हुए सिद्दकी साहब के जहन में वे सारी एक्स रे जैसी निगाहें घूमने लगीं जो कल बाज़ार में उनकी मासूम बच्ची के शरीर को छेदती हुई उनके दिल में सुई की तरह चुभ रही थीं।

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(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by neha agarwal on April 27, 2015 at 1:46am
वाह दी क्या खूब लिखा है।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 26, 2015 at 4:47pm

क्या बात है! लघुकथा अपनी बात को पूरी तरह से रखने में कामयाब हुयी है!आदरणीया माला जी आपको बधाई!

पर्दादारी जरुरी है या नहीं? इस पर तो कभी न ख़त्म होने वाली बहस की जा सकती है....मेरे हिसाब से अपनी सीमा के अन्दर ही सभी चीजें अच्छी लगती है!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 26, 2015 at 9:25am

बहुत बढ़िया आदरणीया मालाझा जी एक संदेश परक रचना के लिये बधाई

Comment by डिम्पल गौड़ on April 25, 2015 at 8:54pm
ज्वलंत समस्या को चित्रित करती एक बेहतरीन कथा | बधाई स्वीकारें माला दी |
Comment by aman kumar on April 25, 2015 at 1:27pm

क्या इस समस्या का हल नकाब है ?

आपकी कथा अच्छी है 

Comment by Mala Jha on April 24, 2015 at 4:26pm
Dr Vijai Shankar जी साभार धन्यवाद।
Comment by Mala Jha on April 24, 2015 at 4:24pm
Er Ganesh jee "Bagi" जी इतने अच्छे मार्गदर्शन के लिए साभार धन्यवाद।आप सभी सुधिजनो का सहयोग और कृपा बनी रहे यही उम्मीद करती हूँ।
Comment by Mala Jha on April 24, 2015 at 4:20pm
Sudhir Dwivedi जी बहुत बहुत धन्यवाद
Comment by Mala Jha on April 24, 2015 at 4:19pm
जितेन्द्र जी साभार धन्यवाद।
Comment by Mala Jha on April 24, 2015 at 4:13pm
मिथिलेश वामनकर जी साभार धन्यवाद।

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