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ग़ज़ल :- उजाला काटने को दौड़ता है |

बह्र :-फ़ऊलुन फ़ाईलातुन फ़ाईलातुन

दिवाना पन नहीं तो और क्या है
उजाला काटने को दौड़ता है

यही छोटा सा घर दुनिया है मेरी
इसी का नाम जन्नत रख दिया है

मैं भूका हूँ मुझे रोटी खिला दो
कोई साइल गली में चीख़ता है

मैं सच्चाई के पैरों पर खड़ा हूँ
मुक़ाबिल झूट के सर पर खड़ा है

सभंल कर ए दिल-ए-नादाँ सभंल कर
तू किन ऊंचाईयों को छू रहा है

वहीं से रोशनी फूटी है यारो
जहाँ मेरा सितारा डूबता है

"समर" दिल आपने तोड़ा है जबसे
अजब हमदर्दियों का सिलसिला है

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on April 5, 2015 at 3:16pm
जनाब दिनेश कुमार जी,आदाब,,हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by दिनेश कुमार on April 5, 2015 at 9:28am
वाह वाह वाह ...!! लाजवाब। मतला ता मकता बेहतरीन। आदरणीय समर कबीर साहब, मेरी तरफ से भी ढेरों दाद व मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए।
Comment by Samar kabeer on April 2, 2015 at 10:40pm
मोहतरमा महिमा श्री जी,आदाब,ज़र्रा नवाज़ी के लिये तहे दिल से शुक्रिया |
Comment by Samar kabeer on April 2, 2015 at 10:29pm
मोहतरमा वन्दना जी,आदाब,हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by MAHIMA SHREE on April 1, 2015 at 9:01pm

दिवाना पन नहीं तो और क्या है
उजाला काटने को दौड़ता है

वहीं से रोशनी फूटी है यारो
जहाँ मेरा सितारा डूबता है....वाह...बहुत खूूब.... बधाई

Comment by vandana on April 1, 2015 at 8:14pm

वहीं से रोशनी फूटी है यारो
जहाँ मेरा सितारा डूबता है

"समर" दिल आपने तोड़ा है जबसे
अजब हमदर्दियों का सिलसिला है

वाह आदरणीय बहुत खूब 

Comment by Samar kabeer on April 1, 2015 at 6:23pm
जनाब सौरभ पाँडे जी,आदाब,इस बह्र के अरकान तो इसी तरह लिखे जाते हैं,दूसरे किस तरह लिखते हैं मैं नहीं जानता,ग़ज़ल में आप जैसे विद्वान की शिर्कत हो गई,लिखना सार्थक हुवा,हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by Samar kabeer on April 1, 2015 at 6:14pm
जनाब नज़ील जी,आदाब,ज़र्रा नवाज़ी के लिये तहे दिल से शुक्रिया |
Comment by Samar kabeer on April 1, 2015 at 6:10pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी,आदाब,,हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया |

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 1, 2015 at 12:35pm

एक अच्छी ग़ज़ल के लिए दिल से दाद कुबूल कीजिये मो. समर कबीर साहब. उम्दा कहन को साझा करते शेर हुए हैं.

आपने बहर को जिस ढंग से लिखा है वह भी बढिया है. ऐसे को अकसर लोग मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन लिखते-समझते हैं. ऐसा है न ?

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