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दिलॊं कॆ हौसले देखें घटाओं से ज़रा कह दॊ ।।
जलाये हैं चरागों को हवाओं से ज़रा कह दॊ ।।  (1)

तुम्हॆं मॆरी इबादत की कसम है ऐ मिरे क़ातिल,

अभी टूटा नहीं हूं मैं ज़फ़ाओं से ज़रा कह दॊ।। (2)

घनी ज़ुल्फ़ॆं मुझॆ बांधॆं इरादा तॊड़ दॆं मॆरा,

नहीं पालॆं भरम क़ातिल अदाऒं सॆ ज़रा कह दॊ !! (3)


मिलूँगा मैं गरीबों की दुआ में रोज तुमको अब,
बुला लेंगी मुझे अपनीं वफाओं से ज़रा कह दॊ ।। (4)

शहर सारे हुये पत्थर दिलों में रंज है भारी,
इमारत मत बनें तुम आज गाँवों से ज़रा कह दॊ ।। (5)

अगर ये पैर की जूती बगावत पे उतर आई,
कभी सिर पे चढ़ेगी 'राज़' पावों से ज़रा कह दॊ ।।(6)


"राज़ बुन्देली"
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 25, 2015 at 11:18pm

लाजव़ाब! लाजव़ाब! लाजव़ाब!

दिल बाग़ बाग़ हो गया ये गजल पढके!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 17, 2015 at 10:27am

आदरणीय राज बुन्देली जी बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई 

इन मिसरों पर पुनर्विचार निवेदित है -

तुम्हॆं मॆरी इबादत की कसम है मिरे क़ातिल, (2 मात्रा कम है )

शहर सारे हुये पत्थर दिलों में रंज है भारी, (शह्र वज्न 21 है)

अगर ये पैर की जूती बगावत पे उतर आई तो, (तो अधिक हो रहा है)

Comment by Nazeel on March 16, 2015 at 8:01pm

आदरणीय कवि  राज बुंदेली जी  बहुत  सुन्दर प्रस्तुति के लिए  हार्दिक बधाई। 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 7:49pm

आ०  राज बुन्देली जी

दुसरे और तीसरे शेर की अंतिम पंक्ति  हू-ब- हू एक जैसी  . कोई टाइप त्रुटि है क्या  ! कृपया देख लें  . सादर .

Comment by Hari Prakash Dubey on March 16, 2015 at 7:32pm

आदरणीय राज़ बुन्देली जी ,सुन्दर ग़ज़ल है...

शहर सारे हुये पत्थर दिलों में रंज है भारी,

इमारत मत बनें तुम आज गाँवों से ज़रा कह दॊ....वाह , हार्दिक बधाई आपको ! सादर 

Comment by Anurag Singh "rishi" on March 16, 2015 at 5:39pm
वाह सर क्या खूबसूरत ग़ज़ल हुई है बेहतरीन

अगर ये पैर की जूती बगावत पे उतर आई तो ,
कभी सिर पे चढ़ेगी ' राज़' पावों से.......वाह उम्दा

दूसरे शेर की बह्र एक बार देख लें
सादर
Comment by Shyam Mathpal on March 16, 2015 at 11:26am

Aadarniya Raj Bundeli Ji,

Har Sher... Lajawab.....Kya Khub...Bahut -- Bahut Badhai.

कृपया ध्यान दे...

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