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तुमने पुकारा ही नहीं मुझको

मैं तो प्रेम रस से 
बादलों की तरह 
भरा हुआ 
बेचैन था 
तुम पर बरसने को
मगर 
तुमने पुकारा ही नहीं मुझको
सूखी 
प्यासी 
व्याकुल 
दरकती हुयी जमीन बनकर
मेरा बरस जाना 
जरूरी थी
क्योंकि 
मैं भरा चुका था 
अन्दर से 
पूरी तरह
मेरी हदों से बाहर 
निकला प्रेम रस
आँखों की कोरों से फूटकर
अश्रुधार बनकर
और बरसता रहा
उम्र भर

उमेश कटारा 
मौलिक व अप्रकाशित

Views: 754

Comment

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Comment by maharshi tripathi on March 13, 2015 at 9:51pm

आपकी कल्पना पर आपको सादर बधाई आ. umesh katara जी |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 13, 2015 at 6:52pm

बहुत सुंदर कल्पना. बधाई आदरणीय उमेश जी

Comment by umesh katara on March 13, 2015 at 6:50pm

आदरणीय Hari Prakash Dubeyजी शुक्रिया 

Comment by umesh katara on March 13, 2015 at 6:50pm

आदरणीय  krishna mishra 'jaan'gorakhpuriजी शुक्रिया 

Comment by umesh katara on March 13, 2015 at 6:49pm

आदरणीय Nidhi plus ji शुक्रिया 

Comment by Hari Prakash Dubey on March 13, 2015 at 5:41pm

आदरणीय उमेश कटारा जी ,आजकल आपकी ग़ज़लों से हटकर कुछ नया पढने को मिल रहा है ,रचना अच्छी है ,बधाई आपको !सादर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 13, 2015 at 4:46pm

बहुत सुन्दर!!भावपूर्ण कविता आदरणीय उमेश सर! हार्दिक बधाईया!!

Comment by Nidhi Agrawal on March 13, 2015 at 3:30pm

अतृप्त श्रृंगार की बहुत अच्छी कल्पना है .. 

Comment by Nidhi Agrawal on March 13, 2015 at 3:28pm

बहुत ही सुन्दर रचना हुई उमेश 

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