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ग़ज़ल : वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२

 

वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ

जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ

 

हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ

इतनी बार हुआ हुँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ

 

जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें

झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ

 

अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है

सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार बहा हूँ

 

मुझमें ही शैतान कहीं है और कहीं है इन्साँ

माने या मत माने दुनिया मैं ही कहीं ख़ुदा हूँ

--------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:56am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. गोपाल नारायण जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:54am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. गिरिराज जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:54am
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आ. मिथिलेश वामनकर जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:53am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. भ्रमर जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:52am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. ख़ुर्शीद जी, स्नेह बना रहे
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:51am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. हरि प्रकाश जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:50am
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आ. शिज्जू जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:48am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. मोहन सेठी जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:47am
तह-द-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आ. बागी जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 10:31am
बहुत बहुत धन्यवाद आ. श्याम मठपाल जी

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