कविता :- सच कहना तुम भूली मुझको ?
काल चक्र के इस प्रवाह में
सुख दुःख और इस धूप छाँह में
सच कहना तुम भूली मुझको ?
कभी तो तुम भी रोती होगी
नियति न्याय को ढोती होगी
हूक सी उठती होगी दिल में
मन ही मन कुछ खोती होगी
सच कहना कैसा लगता है ?
समझौतों के साथ में जीना
जीना पल पल छुप छुप सीना
जीवन की ऐसी ही परिणति
किसने सोचा ऐसा होगा
खामोशी के जैसा होगा
कोई आस जो प्यास अधूरी
जाने कब होगी ये पूरी ?
या बन जायेगा अफसाना
जग झूठा झूठा ये बाना
हमें निभाना ! तुम्हे निभाना !!
Comment
मैं बहुत देर तक डूबा रहा प्रथम तीन पंक्तियों में अरुणजी. मेरी टिप्पणी को कृपया सकारात्मक आयाम के साथ स्वीकारें.
भाईजी, बंद आँखों से लगातार.. देर तक.. व्योमवर्त्त की सीवान पर चहलकदमियाँ करता रहा.. गये-रहे कितने क्षणों को सहेजता रहा. .. जाने कितने रोचक-विरोचक बिम्ब उभरे, विलुप्त हुये.
यह अवश्य है कि, रचनाएँ अपने होने और उमगने के क्रम में उक्त रचयिता की भावनाएँ संप्रेषित करती हैं. एक बार नियत हो जाने के बाद रचनाएँ पाठकों की भावनाओं का पर्याय न बन जायँ तो उनका होना सफल नहीं माना जा सकता. फिर तो पंक्तियाँ एक अलहदा संज्ञा जीने लगती हैं. रचनाकार की भावनाओं से एकदम अलग उनसे कुछ और संप्रेषित होने लगता है .. एकदम अलग पार्श्व को रंगते हुये.
इस मानक पर आपकी पंक्तियाँ मेरे मर्म को न केवल झंकृत किया है बल्कि मेरे अंतर को मानो स्वर देती लग रही हैं.. इन प्रथम तीन पंक्तियों को मेरा सादर प्रणाम.
//काल चक्र के इस प्रवाह में
सुख दुःख और इस धूप छाँह में
सच कहना तुम भूली मुझको ? //
माफ़ कीजियेगा.. प्रारंभ की तीन पंक्तियों के बाद आगे बढ़ ही नहीं पाया. और, मुझे इसका बिल्कुल अफ़सोस नहीं है.
नरम पंक्तियों के लिये हार्दिक बधाई.
आभारी हूँ धीरज जी आपके शब्द मुझे और बल देंगे !!
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