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देह का सागर जल गया

मन का मीत मन को छल गया
आँख का पानी मचल गया

वो मेहन्दी हाथ की मेरे चिटक के रह गयी
वो मछली नेह की मेरे , तड़फ़ के रह गयी
देह का सागर जल गया

पराई छाँव थी , आख़िर मैं रोकता कब तक
पराया ख्वाब था , आख़िर मैं सोचता कब तक
समय के हाथ से सावन फिसल गया

लिपट के रोटी रही , मन से मेरे प्रीत मेरी
वो अन्छुयी ही रही , मेरे स्वप्न की कोरी देहरी
आस का संबल गल गया

मौलिक अप्रकाशित
अजय कुमार शर्मा

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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 18, 2015 at 8:15pm

आदरणीय अजय भाई जी की रचनाएँ भाव स्तर पर बहुत उम्दा और चकित करने वाली होती है. इतनी सरस रचनाये आती है, कि पढ़कर हमेशा मुग्ध हो जाता हूँ, इसलिए सोचता हूँ शिल्प स्तर पर भी कसावट आ जाए तो मंच की बेहतरीन रचनाओं में से एक होगी. आशा है अजय भाई जी निवेदन में इंगित संकेतों और उनके निहितार्थ पर सकारत्मक परिणाम देंगे. सादर 

Comment by somesh kumar on February 18, 2015 at 7:56pm

जैसा की मिथिलेश भाई ने कहा ,रचना को कुछ और गढ़ा जा सकता है |भावनाएँ शब्दों पर बलवती हो रही हैं |शब्दों के क्रम में भी हेर-फेर की जरूरत महसूस हो रही  है |

Comment by Pari M Shlok on February 18, 2015 at 10:04am
सुन्दर भाव पूर्ण आपको बधाइयाँ
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 18, 2015 at 8:38am
मीत मन का मन को ही छल गया
आँख का पानी आँखों में ही मचल गया।
बहुत सुन्दर , आदरणीय अजय शर्मा जी, बहुत बहुत बधाई , सादर।
Comment by ajay sharma on February 17, 2015 at 10:19pm

typing mistakes ke liye sabhi gurjano se kshama chahta hoo.......

Comment by ajay sharma on February 17, 2015 at 10:06pm

bade bhai .....mithilesh ji .....bahut bahut shukriya 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 17, 2015 at 8:37pm

आदरणीय अजय भाई , सुन्दर भाव पूर्ण रहना के लिये आपको बधाइयाँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 4:18pm

आदरणीय अजय जी इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करे.. रचना पर  कुछ बाते साझा करना चाहता हूँ. निवेदित है -

मन का मीत मन को छल गया 
आँख का पानी मचल गया

वो मेहन्दी हाथ की मेरे चिटक के रह गयी ........... वो मेंहदी हाथ की मेरे छिटक के रह गई 
वो मछली नेह की मेरे , तड़फ़ के रह गयी .......... वो मछली नेह की मेरे तड़प के रह गई 
देह का सागर जल गया

पराई छाँव थी , आख़िर मैं रोकता कब तक
पराया ख्वाब था , आख़िर मैं सोचता कब तक 
समय के हाथ से सावन फिसल गया.................. समय की आँख से सावन फिसल गया 

लिपट के रोटी रही , मन से मेरे प्रीत मेरी ............ लिपट के रोती रही, मन से कभी प्रीत मेरी 
वो अन्छुयी ही रही , मेरे स्वप्न की कोरी देहरी ..... वो अनछुई ही रही, कोरी, स्वप्न की देहरी 

आस का संबल गल गया................................... हृदय की आस का संबल पिघल गया 

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on February 17, 2015 at 4:11pm

मन का मीत मन को छल गया
आँख का पानी मचल गया.......

आदरणीय अजय जी एक एक शब्द  दिल को छू जाता है, हार्दिक बधाई !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 17, 2015 at 3:39pm

अजय जी

लिपट के रोटी रही --- शायेद आपका आशय है---' लिपट के रोती  रही '

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