राजा बहुत हैं, शतरंज के इस खेल में,
इनक़लाब का शोर कब तक मचाओगे ?
अभाव बहुत हैं, अंधेरों के इस खेल में ,
गीत उजियारो के कब तक सुनाओगे ?
तलवारें बहुत हैं, अधर्म के इस खेल में,
भाई-भाई का नारा कब तक लगाओगे ?
सयानें बहुत हैं, राजनीति के इस खेल में,
मूर्ख किसको और कब तक बनाओगे ?
किसने क्या पाया ,माया के इस खेल में,
घर जला अपना जश्न कब तक मनाओगे ?
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय जवाहर जी , रचना आपको पसन्द आई ,उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद !
किसने क्या पाया ,माया के इस खेल में,
घर जला अपना जश्न कब तक मनाओगे ?
बेहतरीन रचना ...बधाई!
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर , बहुत बहुत आभार आपका !
शिशिर जी , रचना पर आपकी सराहना के लिए आपका आभार !
आदरणीय हरि प्रकाश भाई , वर्तमान की विडम्बनाओं का बढिया बयान है , आपको दिली बधाई ।
उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय खुरशीद जी ! सादर
आदरणीय गोपालनारायण सर , आपके आशीर्वाद के लिए कृतज्ञ हूँ ! सादर
आदरणीय अनुराग जी , आपकी बात ठीक से समझ नहीं पाया , कृपया स्पष्ट करने की कृपा करैं !
मैं तकती’अ करने में नाकामयाब रहा , मदद करें श्रीमान
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