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सूर्य तो बस सुधा कूप है/ नवगीत (मिथिलेश वामनकर)

प्रेम की गुनगुनी धूप है

सूर्य तो बस सुधा कूप है

 

हंस रहा रश्मियाँ भेजकर

तीर्थ के दीप सा बल रहा

कष्ट में पुष्प सा खिल गया

अनगिनत विश्व का छंद है

कांति का शांति का रूप है

सूर्य तो बस सुधा कूप है

 

ब्रह्म के कण विचरते हुए

बल तेरा मिल गया हर दिशा

शून्य में रूप तू इष्ट का

अस्त पर व्यस्त तू फिर कहीं

कर्म का धर्म का यूप है

सूर्य तो बस सुधा कूप है

 

सृष्टि के पुत्र का पालना

तप्त भी तो मनुज के लिए

सिंदूरी सिंदूरी थपकियाँ

कोपलें, गर्भ की सर्जना

मन प्रजा में छिपा भूप है

सूर्य तो बस सुधा कूप है

(मौलिक व अप्रकाशित)

मिथिलेश वामनकर 

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Comment by मिथिलेश वामनकर on June 29, 2015 at 3:35am

हार्दिक आभार आदरणीय आशुतोष जी 

ये मेरा पहला नवगीत है 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 28, 2015 at 3:05pm

आदरणीय मिथिलेश जी ..आपके नव गीत आज ही पढने का मौका मिला ..इससे पहले मैंने सिर्फ आपकी ग़ज़लें ही पढ़ी हैं ढेर सारी बढ़ाई के साथ सादर 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 30, 2015 at 10:53am

बहुत सुन्दर मनोहर। अच्छा लेखन
जय  श्री राधे
भ्रमर ५


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2014 at 5:18pm
आदरणीय गिरिराज सर, आपके निर्देशानुसार मात्रात्मक त्रुटियों में सुधार के प्रयास करता हूँ।
एक निवेदन कृपया सम्बोधन के अधिकार से वंचित न करें। आप सभी मेरे लिए साहित्य की दुनिया में सीनियर है। मेरे पास सीनियर के लिए सर्वाधिक सहज सम्बोधन सर ही है। सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 21, 2014 at 4:08pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , आपने अपने गीत हो 15 मात्रा मे साधा है , ज्यादा तर पंक्तियाँ 15 मात्राओं की हैं । लेकिन  -

बल तेरा मिल गया हर दिशा   -- 2+4+2+3+2+3  -- 16 मात्रायें  और

सिंदूरी सिंदूरी थपकियाँ  ---       6+6 +5  --             17  मात्रायें  --  यही दो जगह मुझे शंका हुई है ।

आदरणीय, आपको गंभीर प्रयास करते देख खुशी होती है , और इसी लिये कुछ दिखता है तो कह देता हूँ , यहाँ सब की तरह मै भी सीख रहा हूँ , मुझे सर न कहा करें , भाई , बड़ा भाई , मित्र काफी है । अभी बहुत सी कमियाँ मुझमें बाक़ी है जिसे शायद मै दूर भी न कर पाऊँ , मै भी प्रयास रत हूँ सभी मित्रों की तरह । सादर निवेदन ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2014 at 2:35pm
आदरणीय गिरिराज सर, आपको नवगीत पसंद आया आभार, ये मेरा इस विधा में प्रथम प्रयास था
जिन शब्दों से लयता भंग हो रही है उन्हें मैं पकड़ नहीं पारारा हूँ। कृपया चिन्हित करने की कृपा करे सर। आपका बहुत बहुत आभार और हार्दिक धन्यवाद आपका स्नेह सदैव बना रहे सर

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Comment by गिरिराज भंडारी on December 21, 2014 at 12:03pm

बहुत सुन्दर गीत रचना की है आदरणीय मिथिलेश भाई , हार्दिक बधाई स्वीकार करें । मात्रा विन्यास में गड़बड़ी एक दो जगह है , जिससे गेयता बाधित ज़रूर है , आपके लिये सुधार लेना छोटी सी बात है  मुझे विश्वास है ।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 20, 2014 at 10:19pm

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सोमेश कुमार जी, रचना को अनुमोदित करने के लिए.

Comment by somesh kumar on December 20, 2014 at 7:35pm

सूर्य तो बस सुधा कूप है | निश्नदेह जीवन के अविष्कार से लेकर उसके अंत तक सूर्य है,चाहे वैज्ञानिक तर्क से देखें ,श्रद्धा से या काव्य रूप में ,पर सूर्य या उसका प्रतिबिम्ब अनिवार्य है |सुंदर प्रस्तुति-हेतु बधाई 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 20, 2014 at 6:55pm
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी इस नए प्रयास की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार। आपका रचना गुजरना व् अनुमोदन उत्साहवर्धक है लिखना सार्थक हुआ बहुत बहुत बहुत धन्यवाद

कृपया ध्यान दे...

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