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वह आज ही बेवा हुई ! (नज़्म, बह्र-ए-रजज़)

[ 2 2 1 2 ]

 

वो आज ही बेवा हुई !

 

बुझ-सी गई जब रौशनी, जमने लगी जब तीरगी,

बदली यहाँ फिर ज़िन्दगी, वह आज ही बेवा हुई !

क्यूं तीन बच्चे छोड़कर, मुंह इस जहां से मोड़कर,

वो हो गया ज़न्नतनशीं, वो आज ही बेवा हुई !

 

है लाश नुक्कड़ पे पड़ी, मजमा लगा चारो तरफ,

उस पर सभी नज़रें गड़ी, वह आज ही बेवा हुई !

वो रो रही फिर रो रही, बस लाश को वो ताकती,

उसने कहा कुछ भी नहीं, वो आज ही बेवा हुई !

 

फिर यकबयक वो चुप हुई, अब मैं सुहागन तो नहीं,

जैसे सिफ़र सी तिश्नगी, फिर  आँख में उसके चढ़ी,

 

उस लाश के पहने हुए, उस कोट पर उसकी नज़र,

था कोट वैसे तो फटा, खुद ज़िन्दगी से था कटा,

उसको तसल्ली हो गई, वो आज ही बेवा हुई !

 

फिर फिर तसल्ली सी हुई ये देखकर,

“इन सर्दियों में कोट अपना छोड़कर,

क्या खूब तुम हमदम हुए ज़न्नतनशीं,

शौहर मेरे, औलाद की क्या फ़िक्र की”

उसने उतारा कोट लेकर चल पड़ी,

 

बेवा हुई,

वो आज ही बेवा हुई !

लेकिन उसे इक कोट की दौलत मिली।

 

ये देख के सब लोग यूं हैरान थे, होने लगी चारो तरफ सरगोशियाँ।

मेरे ख़ुदा इसने भला ये क्या किया, इक लाश का भी कोट क्योंकर ले लिया।

ये लालची कितनी भला औरत हुई,

अब देख लो कैसी भला जुर्रत हुई।

ज़न्नतनशीं का क्यूं भला ये हाल है,

लाश का क्यूं इस कदर पामाल है।

ये पैरहन माटी मिले का ले गई,

बस याखुदा, बस याखुदा की गूँज थी।

बेवा हुई, वो आज ही बेवा हुई !

 

जाहिर कि वो सब लोग थे, बस लोग थे मुफ़्लिस नहीं,

मुफ़्लिस नहीं क्या जानते, होती भला क्या सर्दियां, होती भला क्या कंपकपी,

जमने लगे जब हड्डियाँ, जमने लगे जब ये लहू, रूकने लगे जब धड़कने,

फिर सांस भी थमने लगे, फिर हारती है ज़िन्दगी, वो आज ही बेवा हुई !

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित) - मिथिलेश वामनकर 
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 (नज़्म, बह्र-ए-रजज़)  [ 2 2 1 2 ]

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 10, 2014 at 2:55pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर बहुत बहुत धन्यवाद, आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2014 at 11:17am

आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत सुन्दर मार्मिक नज़्म कही ! दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 9:00pm
पेशोपश- पसोपेश

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 8:49pm
आदरणीय सौरभ पाण्डे सर इस प्रयास को आपने पसंद किया मैं ह्रदय से आभारी हूँ, अभिभूत हूँ। इस क्षेत्र में नई रचनाधर्मिता के लिए सम्बल और प्रोत्साहन है आपकी टिप्पणी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 8:46pm
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय योगराज प्रभाकर सर। इस तरह बहर का इस्तेमाल उचित है या नहीं इसी पेशोपश में था। आपने मेरी दुविधा दूर कर दी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 8:43pm
धन्यवाद आदरणीय सोमेश कुमार जी

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 9, 2014 at 1:28pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी, आपकी इस नज़्म पर हृदय से बधाइयाँ प्रेषित कर रहा हूँ. जिस रवानी में कहन को साधने का प्रयास हुआ है वह मुग्धकारी है.

जहाँ तक नज़्म या ग़ज़ल या कत्अ आदि का सवाल है, ये सभी आधारभूत बहरों पर ही निर्भर करती हैं. बस विधाओं के तौर पर उनमें अंतर होता है.  अब देखिये न, इस मंच पर इस बार के तरही मुशायरे का मिसरा जिस बहर पर आधारित है, २२१ १२२२ २२१ १२२२ इस पर फिल्म ’लाट साहब’ का एक बहुत ही मकबूल गीत है - 'ऐ चाँद ज़रा छुपजा, ऐ वक्त ज़रा थम जा..
कहने का मतलब है कि विधान के अनुसार ही कोई रचना ग़ज़ल या नज़्म या कत्अ होती है.

पुनः आपके प्रयासों और इस मार्मिक रचना के लिए हार्दिक बधाइयाँ व शुभकामनाएँ


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2014 at 12:08pm

जब बह्र के आधार पर गीत/नवगीत कहे जा सकते हैं तो नज़्म कहने में क्या हर्ज़ है ? बल्कि इससे तो नज़्म की रवानगी में गज़ब का इज़ाफ़ा होता है। नज़म बेहद खूबसूरत हुई है जिसके लिए दिल से बधाई प्रस्तुत है भाई मिथिलेश वामनकर जी।

Comment by somesh kumar on December 9, 2014 at 10:48am

खुबसुरत 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2014 at 11:07pm

कुछ अलग तरह से लिखने का प्रयास किया है. क्या नज़्म ऐसे ही लिखते है ? ये नज़्म है या नहीं ? गुनीजनो से मार्गदर्शन चाहता हूँ इसलिए यह पोस्ट की है .

कृपया ध्यान दे...

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