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मुट्ठी में कब रेत भी, ठहरी मेरे यार।

चार पलों की जिंदगी, बाकी सब बेकार।।

 

जीवन की इस भीड़ में, सबके सब अनजान।

सिर्फ फलक ही जानता, तारों की पहचान।।

 

पाप पुण्य जो भी किया, सब भोगे इहलोक।

जाने कैसा कब कहाँ, होगा वो परलोक।।

 

आँखों ने जाहिर किया, कुछ ऐसा अफ़सोस।

आँखों पे कल धुंध थी, अब आँखों में ओंस।।

 

व्यर्थ मशालें ज्ञान की, प्रेम पिघलते दीप।

बिखरी है हर भावना, सिमटा दिल का सीप।।

 

सागर से मत मांगिए, बूँद बराबर प्यास।

टूट न जाए देखिये, दरिया का विश्वास।।

 

पलकों का है पालना, नैनो की है डोर।

रिश्तों के सुख दे गए, मुस्कानों के पोर।।

 

दरवाजे सब बंद है, कैसा यार मकान ।

दिल की खिड़की खोल दे, मन का रोशनदान।।

 

कोयलिया की कूक से, गुंजित है मधुमास।

तुम बिन अमराई मगर, लगती बहुत उदास।।

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  - मिथिलेश वामनकर 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 10, 2014 at 3:15am
दोहों की त्रुटियाँ दूर कर सुधारने का प्रयास किया है। सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 8:16pm

परम आदरणीय सौरभ पाण्डेजी, आपको यह प्रयास पसंद आया . आपका आभार, धन्यवाद. त्रुटियों पर आज प्रयास करता हूँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 8:15pm

परम आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, आपका इस रचना पर उपस्थित होना ही उत्साह वर्धक है . सभी गुनीजनो के निर्देशानुसार आज दोहे ठीक करने का प्रयास करता हूँ . आपका आभार, धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 9, 2014 at 3:11pm

बेहतर प्रयास हुआ है आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी.

आप इस पटल के भारतीय छन्द विधान समूह के निम्नलिखित लिंक पर दोहा सम्बन्धी पर्याप्त जानकारी ले सकते हैं -

http://www.openbooksonline.com/group/chhand/forum/topics/5170231:To...

धन्यवाद


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2014 at 2:56pm

सुन्दर और सार्थक दोहे कहे हैं भाई मिथिलेश वामनकर जी, आपकी लेखन प्रतिभा का एक और पहलू सामने आया। हालांकि शिल्प की दृष्टि से काफी जगह सुधार की गुंजायश है,  जिसकी तरफ सुधिजन इशारा कर भी चुके हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप उनपर अवश्य गौर करेंगे।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2014 at 11:19pm

टूटी मशालें ज्ञान की पिघले प्रेम के दीप

भावनाएं बह गई सिमटा दिल का सीप

इस दोहे में सुधार करने पर अर्थ बदल रहा है . त्रुटी दूर नहीं कर पा रहा हूँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 6, 2014 at 8:08pm

परम आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपकी रचनाओं पर उपस्थिति मात्र से बहुत उत्साह वर्धन होता है .. आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आभार, आपने जिन पंक्तियों को त्रुटिपूर्ण चिन्हित किया है उन्हें यथाशीघ्र सुधार करने का प्रयास करता हूँ ... पुनः तहे दिल से शुक्रिया 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 6, 2014 at 8:03pm

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला जी..... आपने जिस बारीकी से दोहों पढ़ा और त्रुटियों को चिन्हित करते हुए जो अपने अमूल्य सुझाव दिए उसके लिए तहे दिल से शुक्रिया ... आभार .. जल्द ही दोहे ठीक करता हूँ ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 6, 2014 at 4:06pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , सुन्दर दोहों के लिये बधाई , निम्न पंक्तियों की मात्रायें फिर से गिन लीजियेगा ।

टूटी मशालें ज्ञान की पिघले प्रेम के दीप

भावनाएं बह गई सिमटा दिल का सीप

सुख के मोती बिखेर दे मुस्कानों के पोर

दरवाजे सब बंद है कैसा तेरा मकान

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 6, 2014 at 12:17pm

सुंदर भाव लिए दोहे रचने के लिए बधाई -

मुट्ठी में कब रेत भी, ठहरी मेरे यार,

चार पलों की जिंदगी, बाकी सब बेकार | - सुंदर दोहा 

 

जीवन की इस भीड़ में ,सबके सब अनजान

सिर्फ फलक ही जानता, तारों की पहचान |  - बहुत खूब 

 

पाप पुण्य जो भी किया, सब भोगे इहलोक

जाने कैसा कब कहाँ, होगा वो परलोक |

 

आँखों ने जाहिर किया कुछ ऐसे अफ़सोस -   किया" के साथ ऐसे की जगह  "ऐसा" आना चाहिए 

आँखों पे कल धुंध थी अब आँखों में ओंस

 

टूटी मशालें ज्ञान की पिघले प्रेम के दीप,  - विषम चरण में 14 और सम चरण में १२ मात्राए हो रही है 

भावनाएं बह गई सिमटा दिल का सीप     - भावनाए बह गई - 11 मात्राए हो रही है - भावनाए बहती गई - कर सकते है 

 

सागर से मत मांगिए बूँद बराबर प्यास

टूट ना जाये देखिये दरिया का विश्वास - वहम 14 मात्राए हो रही है | "टूट न जाए देखिये" कर सकते है |

 

पलकों का है पालना, नैनो की है डोर

सुख के मोती बिखेर दे मुस्कानों के पोर - विषम चरण में 14 मात्राए हो रही है 

 

दरवाजे सब बंद है कैसा तेरा मकान -- -------  सम चरण में कुछ लय भंग लग रही है मात्राए भी १२ हो रही है 

दिल की खिड़की खोल फिर मन का रोशनदान-  दिल की खिड़की खोल दे, मन का रोशन दान 

 

कोयलिया की कूक से,गुंजित है मधुमास

तुम बिन अमराई मगर लगती बहोत उदास--  बहोत शब्द गलत है और इससे मात्रा  भार बढ़ रहा है | बहुत शब्द करना उचित होगा 

सुंदर दोहों में त्रुटियाँ सुधार अपेक्षित | सादर 

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