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लघुकथा : सुकून (गणेश जी बागी)

                         व्यंग्यात्मक शैली में लिखने के लिए जाना जाता है, उसकी कवितायेँ बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से राजनेताओं पर तीखी मार करती हैं, उसकी कविता प्रतिष्ठित अखबार के साहित्यिक स्तम्भ में आज प्रकाशित हुई है, कल से ही वो परेशान और बेचैन था, जाने क्या होगा, पता नहीं उसकी अभिव्यक्ति को लोग समझ भी पाएंगे अथवा नहीं, रात भर वह सो न सका ।
                        सुबह होते ही मोबाइल की घंटियां बजने लगी, उसका मन शांत था और चेहरे पर सुकून के भाव थे, उसकी अभिव्यक्ति समझ ली गयी थी, गालियों संग धमकियों का दौर चालू हो गया था ।

(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट => अतुकान्त कविता : पगली

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Comment by Neeraj Nishchal on December 3, 2014 at 1:06pm
आदरणीय बागी जी बहुत उम्दा विषय पर आपने प्रकाश डाला है निश्चित ही ये विचारणीय है कि आखिर किस साहित्यकार को समझने मेँ हम न्याय कर पायेँ हैँ कितनी कशमकश मेँ जीता है एक रचनाकार । कितने आंतरिक संघर्षोँ को आत्मसात करता है , कितने असमंजसोँ कितनी उलझनोँ मेँ उलझकर वो कुछ तथ्योँ को उघाडने का प्रयास करता परंतु हमारा समाज अभी इतना प्रौढ न हो पाया कि अपना सच सुन सके हर किसी को अपने दिल की बात रखने दे हम अभी इतने आजाद ही न हो पाये आदमी इतने युग बीत जाने के बाद अभी भी बचकाना है ।
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 3, 2014 at 1:01pm

वाह वाह क्या अंदाज हैं सर! बहुत ही बेहतर और सत्य प्रस्तुति!

Comment by Shyam Narain Verma on December 3, 2014 at 12:18pm

बहुत बेहतर लघुकथा. बधाई आपको ..................

सादर...........

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