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"गली के मोड़ पर "

"अतुकांत"
_________

गली के मोड़ पर जब दिखती

वो पागल लडकी

हंसती

मुस्कुराती

कुछ गाती सकुचाती,

फिर तेज कदमो

से चल

गुजर जाती

चलता रहा था क्रम

अभ्यास में उतर आई

उसकी अदाएं

हँसा गईं कई बार कई बार

सोचने पर

विवश

विधाता ने सब दिया

रूप नख-शिख

दिमाग दिया होता थोडा

और सहूर

जीवन के फर्ज निभाने का,

वय कम न थी

मगर आज...........

दिखी न वो हँसी

मोड़ तक आती वह गली

खामोश थी  |

दो कदम चल कर देखा,

भीड़ खडी थी और

सफ़ेद चादर से ढँका तन

खुला चेहरा

दहशत भरा

मुस्कुराना भूलकर |

( मौलिक अप्रकाशित )

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Comment by Chhaya Shukla on September 22, 2014 at 6:09pm

अतिशय आभार आ.नरेन्द्र सिंह चौहान जी 
सादर नमन 

Comment by Chhaya Shukla on September 22, 2014 at 3:51pm

आ. अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी 
अतिशय धन्यवाद 
सादर नमन ! 

Comment by Chhaya Shukla on September 22, 2014 at 3:50pm

आ. डॉ विजय शंकर जी आपकी प्रतिक्रिया  सजग साहित्य प्रहरी बनाने में और सहयोग करेगी |
सादर नमन 

Comment by Chhaya Shukla on September 22, 2014 at 3:46pm

अतिशय आभार ! 
आ.श्याम नारायण वर्मा जी 
सादर नमन 

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 22, 2014 at 2:47pm
एक साहित्यकार का दाइत्व सरल नहीं होता , आपने उसे बहुत ही मार्मिक ढंग से निभाया , आपकी संवेदनशीलता को नमन , रचना दुखद है पर प्रशंसनीय है। सादर .
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 22, 2014 at 2:39pm

आदरणीया छाया जी, 

सफ़ेद चादर से ढँका तन

खुला चेहरा

दहशत भरा

मार्मिक चित्रण , किसी अकेले के लिए आजकल हर शहर का माहौल दहशत भरा होता  जा रहा है। 

हार्दिक बधाई इस रचना पर  

Comment by Shyam Narain Verma on September 22, 2014 at 12:40pm

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... सादर बधाई ....

कृपया ध्यान दे...

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