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सिसकियाँ (लघुकथा)

माँ सोनी के कमरे से खूब रोने चीखने की आवाजें आ रही थी, १४ साल की राधा भयभीत हो रसोई में दुबकी रही, जब तक पिता के बाहर जाने की आहट ना सुनी ! बाहर बने मंदिर से पिता हरी की दुर्गा स्तुति की ओजस्वी आवाज गूंजने लगी! भक्तों की "हरी महाराज की जय" के नारे से सोनी की सिसकियाँ दब गयी! पिता के बाहर जाते ही माँ से जा लिपट बोली "माँ क्यों सहती हो?" सोनी घर के मंदिर में बिराजमान सीता की मूर्ति देख मुस्करा दी! अपने घाव पर मलहम लगाते हुए बोली, "मेरा पति और तेरा पिता हैं, तू बहुत छोटी है, नहीं समझेगी|"

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सविता मिश्रा

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by savitamishra on August 25, 2014 at 7:52pm

महिमा sis आभारी है हम ...सहीं कहा आपने माँ का दर्द बेटियां ही तो समझती है

Comment by savitamishra on August 25, 2014 at 7:51pm

सादर नमस्ते आदरणीय विजय भैया .......अपने कहानी को समय दिया और मर्म को समझा आभार आपका व्यक्त करते है यूँ ही अपना स्नेह बनाये रक्खें

Comment by savitamishra on August 25, 2014 at 7:49pm

आदरणीय गोपाल चाचाजी सादर नमस्ते............दिल की गहराइयों  से आभार आपका

Comment by savitamishra on August 25, 2014 at 7:48pm

राजेश दी सादर नमस्ते ....ओह ऐसी परम्पराएँ आज भी चल रही है दुखद बहुत ज्यादा ही दुखद ! तहेदिल से आभार दीदी जो आपको कहानी पसंद आई हमारी

Comment by savitamishra on August 25, 2014 at 7:44pm

पवन बेटा शुक्रिया आपका तहेदिल से

Comment by MAHIMA SHREE on August 25, 2014 at 7:41pm

बहुत ही हर्द्यस्पर्शी सच्ची तस्वीर .. बेटियाँ हमेशा से माँ के दर्द को समझती हैं और भावनात्मक संबल भी देती हैं ...बहुत -२ बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 25, 2014 at 5:55pm
विरोध के स्वर बढ़ती उम्र वालों से ही सुनाई देते हैं , पर उन्हें सार्थक स्वरुप तो प्रौढ़ और परिपक्क्व ही दे सकते हैं , कथा चेतना के स्वर सुनती है , पर स्थापित परम्पराओं को बदले कौन ? वइसे बगावत के स्वर भी शून्य नहीं हैं। यत्र-तत्र मिल ही जाते हैं . इस लेखन के लिए बधाई , आदरणीय सविता मिश्रा जी ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 25, 2014 at 5:45pm

आदरणीय

राजेश कुमारी जी ने जो विचार रखे i उससे पूर्ण सहमति  है i  


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Comment by rajesh kumari on August 25, 2014 at 5:07pm

माँ समझती है बच्ची छोटी है ,किन्तु उसका ये पूछना "माँ क्यूँ सहती हो ?"वक़्त बदलने ,परंपरा बदलने ,अन्याय के खिलाफ़ आवाज उठाने की तरफ एक इशारा है|और ये बदलाव धीरे धीरे समाज में दिखाई भी देने लगा है ....अभी दो तीन दिन पहले गढ़वाल की एक परंपरा की बात हो रही थी जिसमे स्त्री पूरे दिन व्रत रख कर शाम को पति के चरण धोने वाले पानी से व्रत तोडती है ...वही पति अगले दिन उसे मारता पीटता है अतः आज कल की पढ़ी लिखी लड़कियां क्यूँ इस परंपरा को चलाएंगी ?और न ही चलानी चाहिए विरोध करना चाहिए ,आपकी ये लघु कथा बहुत से सवाल खड़े करती है ,जबाब हमे ही ढूढने हैं ,बधाई आपको प्रिय सविता जी.   

Comment by Pawan Kumar on August 25, 2014 at 4:18pm

मार्मिक भावों से परिपूर्ण .....
सुन्दर रचना ...... सादर बधाई!

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