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झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें (ग़ज़ल 'राज')

१२२२  १२२२   १२२२   १२२२ 

तुम्हारे पाँव से कुचले हुए गुंचे दुहाई दें

फ़सुर्दा घास की आहें हमें अक्सर सुनाई दें

 

तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार दिखता है

हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें

 

तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ

झुकी उस डाल में  हमको कई चीखें सुनाई दें

 

न कोई दर्द होता है लहू को देख कर तुमको  

तुम्हें आती हँसी जब सिसकियाँ  भर- भर दुहाई दें 

कहाँ महफ़ूज़ वो माँ दूध से जिसने हमे पाला

झुका देती जबीं अपनी सजाएँ जब कसाई दें

 

उड़े कैसे भला तितली लगे हैं घात में शातिर

खुदा की रहमतें ही बस उन्हें अब तो रिहाई दें 

 

करें फ़रियाद कब किससे जहाँ में कौन है किसका

सितम गर रूहें , खुद रब की अदालत में सफ़ाई दें

 

फ़सुर्दा =मुरझाई हुई

महफ़ूज़ =सुरक्षित

जबीं =माथा 

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 8, 2014 at 9:41am

आपको ग़ज़ल उसके भाव पसंद आये मेरा लिखना सार्थक हुआ ,प्रिय गीतिका तहे दिल से आभार आपका |

Comment by वेदिका on July 8, 2014 at 9:29am

तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार है दिखता

हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें

  मजबूत ख्यालों वाला शेर!

सामयिक गजल पर बधाई आ० राजेश दीदी! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 8, 2014 at 9:26am

हार्दिक आभार अरुण निगम जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई अशआरों ने आपको प्रभावित किया मेरा लिखना सार्थक हुआ ,बहुत- बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 8, 2014 at 9:24am

बहुत-बहुत शुक्रिया नीलेश जी,ग़ज़ल पर सर्प्रथम प्रतिक्रिया के लिए भी हार्दिक आभार|आपने जिस शेर में अपना संशय जाहिर किया उसका आशय बहुत स्पष्ट है ..हमारे देश में माँ ,बहन, बेटियाँ बर्बरता सहती आई हैं ,जिस तरह अपने दूध से हमे पालने वाली गाय कसाई के सामने सिर माथा झुका देती है कटने के लिए  क्यूंकि उसके पास कोई विकल्प ही नहीं बचता बर्बरता सहने के अलावा |आशा है मैं स्पष्ट कर पाई |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on July 8, 2014 at 9:19am

तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार है दिखता

हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें

 

तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से नोंचते कलियाँ

झुकी उस डाल में  हमको कई चीखें सुनाई दें

इन दोनों अश'आरों पर खास तौर से दाद कबूल कीजियेगा...............

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 8, 2014 at 9:00am

बहुत ख़ूब ...

तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार है दिखता

हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें

 .
इस शेर पर विशेष दाद 
.

कहाँ महफ़ूज़ वो माँ दूध से जिसने हमे पाला

झुका देती जबीं अपनी सजाएँ जब कसाई दें..... इस शेर का आशय नहीं समझ पा रहा हूँ ..कृपया मार्गदर्शन करें ..
सादर 

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