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कविता ,,,,,,,, क्योंकि अक्सर ,,,,,,,,

लोग अक्सर राह चलते
देखकर मादा शरीर
ठिठक जाते हैं
और लेने लग जाते हैं जायजा
शरीर के उतार चढ़ाओं का
खोजने लगते हैं परिस्थितियाँ
जहाँ मादा शरीर उपभोग की वस्तु हो जाए
अक्सर वो ही लोग
देख कर गर्भों में मादा शरीर
डर जाते हैं
नष्ट कर उसे
आश्वस्त हो जाते हैं
क्योंकि अक्सर
लोग अपनी ही नज़र से
तोलते हैं दुनिया को
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

गुमनाम पिथौरागढ़ी

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by विजय मिश्र on June 23, 2014 at 12:41pm
ये नजर -नजर का बुनियादी फर्क ही तबाही का मंजर खड़ी कर रहा है |कम में ज्यादा की प्रस्तुति अतिसामयिक है और सत्यता के समिप भी |आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 22, 2014 at 8:31pm
आदरणीय गुमनाम भाई , बहुत गम्भीर और गहरी सोच के लिये आपको बधाई ॥
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 22, 2014 at 1:01pm

गुमनाम जी

आपकी इस  मौलिक सोच का जवाब नहीं i बहुत सुन्दर i

कृपया ध्यान दे...

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