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फल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, अगरबत्ती, कर्पूर

मिठाई, पूजा, आरती, दक्षिणा

चुपचाप ये सबकुछ ग्रहण कर लेगा

अगर देना चाहोगे जानवरों या इंसानों की बलि

उसे भी ये चुपचाप स्वीकार कर लेगा

पर जब माँ बनते हुए बिगड़ जाएगी तुम्हारी बहू या बेटी की हालत

तब उसे छोड़कर किसी बड़े अस्पताल में किसी बड़े आदमी की

बहू या बेटी के सिरहाने डाक्टरों की फ़ौज बनकर खडा हो जाएगा

जब किसी झूठे केस में गिरफ़्तार कर लिया जाएगा तुम्हारा बेटा

तब उसे छोड़कर किसी अमीर बाप के बिगड़े बेटे को बचाने के लिए

वकीलों की फ़ौज बनकर खड़ा हो जाएगा

जब तुम स्वर्ग जाने की आशा में

किसी तरह अपनी जिन्दगी के अंतिम दिन काट रहे होगे

तब ये किसी अमीर बूढ़े के लिए

धरती पर स्वर्ग का इंतजाम कर रहा होगा

ये तुम्हारा ईश्वर नहीं है

तुम्हारा ईश्वर तो कब का मर चुका है

अब जो दुनिया चला रहा है

वो ईश्वर पूँजीवादी है

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 1, 2014 at 10:38am

बहुत बहुत शुक्रिया बृजेश जी।

Comment by बृजेश नीरज on May 1, 2014 at 10:31am

वाह! बहुत सुन्दर! वर्तमान देश काल की विसंगतियों को बहुत अच्छे से उधेड़ा है आपने इस कविता के माध्यम से. 

//अब जो दुनिया चला रहा है

वो ईश्वर पूँजीवादी है//.........ये पंक्तियाँ सीधे चोट करती हैं.

इस रचना के लिए आपको साधुवाद और हार्दिक बधाई!

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 1, 2014 at 10:04am

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ सौरभ जी, स्नेह बना रहे।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 1, 2014 at 1:41am

धनपशुता की वैचारिक वीभत्सता को जिस तीखेपन से दुत्कारा गया है और जिस समाज पर लानतें भेजी गई हैं वह इस कविता का हेतु है. वह समाज अवश्य ही बहुसंख्यक की मान्यताओं और ऐसों के जीवन की कठिनाइयों का पक्षधर नहीं है, लेकिन किस तरह से हर तरह के समाज को प्रभावित करता है, यह अबूझ नहीं है.

बधाई स्वीकार करें.. आदरणीय

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2014 at 11:42am

बहुत बहुत शुक्रिया Prachi जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 19, 2014 at 6:11pm

समाज के दो अलग वर्गों में भेद दिखाती परिस्थितियाँ..एक के लिए सुकून सुगम और दुसरे केलिए दुर्गम... ऐसे में ईश्वर की आमजन में व्याप्त अवधारणा को पूरे आक्रोश के साथ आपने शब्दबद्ध किया है.. 

शुभकामनाएं 

Comment by विजय मिश्र on April 12, 2014 at 5:17pm
एक बिन्दू पर दो लोगों के दो भिन्न दृष्टिकोण होना सहज सी बात है ,आपने मेरी बात को गौर किया ,सोचा और उसपर अपनी बात रखी ,यही क्या कम है! धन्यवाद धर्मेंद्रजी|
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 12, 2014 at 4:31pm

अपने विचारों से अवगत करवाने के लिए धन्यवाद विजय मिश्र जी। कहते हैं कि ईश्वर दयानिधान, गरीबनवाज़, दीन दुखियों का है लेकिन आजकल सबकुछ इसके बिल्कुल विपरीत हो रहा है। ये कविता ईश्वर की इस अवधारणा पर व्यंग्य है। धनहीन समाज पहले से ही कुंठित है तथा दिन ब दिन और ज्यादा कुंठित होता जा रहा है। ये कविता केवल उस बढ़ती हुई कुंठा को सामने ला रही है आखिर साहित्य समाज का आईना है।

मैं आपके विचारों से सहमत नहीं हूँ।

Comment by विजय मिश्र on April 11, 2014 at 5:38pm
धर्मेंद्रजी , कविता अच्छी बनी है ,आजकी आधुनिकता में धन के प्राबल्य को सटीक तरिकेसे रखती भी है किन्तु आशय परम्परा के विपरीत ले जाता है और बहुत विशाल समाज को जो धनहीन है ,उसे कुंठित करता है तथा स्रोत को अनदेखा कर जीत-तीत प्रकार से उपार्जन की प्रेरणा देने से भी नहीं चूकता |कवि का दायित्व कहीं क्षीण है |क्षमा सहित |
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 11, 2014 at 3:54pm

बहुत बहुत शुक्रिया जितेन्द्र 'गीत' जी

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