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तोड़ नीड़ की परिधि

सारी वर्जनाएं

भुला  नीति रीति

लांघ कर सीमाएं

छोड़ संयम की कतार

दे परवाज़ को विस्तार

वशीकरण में बंधा

लिए एक अनूठी चाह

कर बैठा गुनाह

लिया परीरू चांदनी का चुम्बन

जला बैठा अपने पर

उसकी शीतल पावक चिंगारी से

गिरा औंधें मुहँ

नीचे नागफनी ने डसा

खो दिया परित्राण

ना धरा का रहा

ना गगन का

बन बैठा त्रिशंकु

वो उन्मत्त परिंदा

**************

 (मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Omprakash Kshatriya on March 12, 2014 at 6:28pm

सरस व प्रवाह मयी रचना के लिए आप बधाई की पात्र है .

Comment by विजय मिश्र on March 12, 2014 at 4:52pm
साधुवाद राजेशजी ,इस उन्मत भाव की रुपकता को शब्दों में सरस अभिव्यंजित करने के लिए |
आपकी रचना पढ़ 'गाइड 'कि अभिनेत्री से बुलबाया गया एक संवाद स्मरण हो आया ,कुछ ऐसा है - "तुमने चिंगारी क्या दिखलायी ,मैंने अपना आशियाना ही फूँक डाला |"

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 12, 2014 at 2:11pm

रचना की सराहना और प्रथम प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल से आभार शिज्जू भाई. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 12, 2014 at 1:49pm

एक अलग तरह की रचना पढ़ने को मिली है बहुत खूबसूरत और प्रवाहमय रचना है बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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