कुर्रतुल एन. हैदर
अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो
प्रभात कुमार रॉय
उर्दू साहित्य के लिए हिंदुस्तान के सर्वोच्च साहित्य पुरुस्कार ज्ञान पीठ अवार्ड से नवाज़ी गई। कुर्रतुल एन हैदर को उनके चाहने वाले एनी आपा के नाम से पुकारा करते थे। हिंदी और उर्दू पाठकों के मध्य समान रुप से लोकप्रिय रही, कुर्रतुल एन हैदर वस्तुतः उर्दू के साहित्याकाश पर एक जगमगाता हुआ सितारा रही। उनसे पहले ज्ञानपीठ अवार्ड मकबूल शायर फिराक़ गोरखपुरी को प्रदान किया गया था । अपनी शानदार रचनाओं से कुर्रतुल एन हैदर उर्दू साहित्य में नए रंग भर दिए और उसे एक नई बुलंदी पर पंहुचा दिया। उन्होने उर्दू साहित्य के लिए अफसाने उपन्यास जीवनगाथाएं सफरनामे और आत्मकथा की रचनाएं की। अपनी कृतियों के लिए कुर्रतुल एन हैदर को 1967 में साहित्य अकादमी अवार्ड, 1985 में पद्मश्री, 1998 में ज्ञानपीठ अवार्ड और 2005 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
कुर्रतुल एन हैदर का उपन्यास आग का दरिया सम्भवतया उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना रही, जिसका बहुत सी भाषाओं में अनुवाद हुआ। आग का दरिया के लिए ही कुर्रतुल एन हैदर को ज्ञानपीठ अवार्ड से नवाज़ा गया था। आग का दरिया के अलावा चाय का घर सीता हरण पतझड़ की आवाज चांदनी बेगम अगले जन्म मोहे बिटिया ना कीजो आखिर ए शब के हमसफर शीशे का घर दास्तान ए अहदे गुल सितारों से आगे आदि भी उनकी प्रमुख रचनाओं में शुमार की जाती हैं। एनी आपा के उपन्यास देश के इतिहास की पृष्ठभूमि के साथ आधुनिक जिंदगी की जटिलताओं के दौर में मानव संबधों का जीवंत दस्तावेज हैं।
हिंदी के यशस्वी कवि यश मालवीय ने कुर्रतुल एन हैदर के विषय में सटीक टिप्पणी करते हुए कहा था कि जैसी किस्सा गोई उनके पास विद्यमान रही, वह आजकल हिंदी और उर्दू दोनों के अफसानों से नादारद है ।उर्दू साहित्य के प्रख्यात समीक्षक गोपी चंद नारंग का कथन है कि एनी आपा सारी जिंदगी अपनी रचनाओं में एतिहासिक तथ्य इंसानी फितरत सामाजिक मेलजोल की कद्र ओ कीमत पर जोर देती रही।
कुर्रतुल एन हैदर सारे जीवन यह यक़ीन करती रही कि पुरूषों को ज़हीन औरते बरदाश्त नहीं होती। इसी विश्वास के साथ उन्होने एक कहानी भी लिखी थी, जिसका उन्वान है, अगले जन्म मोहे बटिया न कीजो। एक बार प्रसिद्व कथाकार कमलेश्वर ने कहा था कि अमृता प्रीतम, इस्मत चुगतई और कुर्रतुल जैसी विद्रोहणी लेखिकाओं ने भारतीय साहित्य को दुनिया में एक नए मक़ाम पर पंहुचाया। कुर्रतुल केवल कथानक की कुशल चितेरी ही नहीं रही वरन् उनके शब्द लरजते रहते हैं, थरथराते रहते हैं, सहलाते रहते हैं और गहन अंधकार में हाथ पकड़ कर किसी मक़ाम पर पंहुचा देते हैं।
एनी आपा को यह कदाचित स्वीकार्य नहीं हुआ कि औरत का दरजा समाज में किसी भी तरह से दोयम दर्जे का हो सकता है । उन्होने एक स्थान पर कहा कि औरत का जिस्म कोई तिजारत की चीज़ नहीं है। उसका अपना जिस्म है जिसकी वह मुकम्मल मालकिन है। औरत के जिस्म से निगाह हटाइए और उसके दिलो दिमाग को देखिए और परखिए। औरत की आज़ादी और औरत के आत्म सम्मान पर उनका बहुत अधिक जोर कायम रहा, जोकि उनकी तमाम रचनाओं में परिलक्षित होता है। आज देश में साहित्य के रचनात्मक परिदृश्यों में स्त्री को वस्तु बनाकर पेश करने की कलुषित प्रवृति उभरी है, जिसका कर्रतुल एन हैदर ने अपनी रचनाओं में जबरदस्त प्रतिकार किया।
इंसानी बेबसी और लाचरगी की बहुत ही वास्तविक और असरदार अभिव्यक्ति उनके उपन्यासों में हुई है। मंजरकशी में उनका अपने समकालिनों में कोई भी सानी नहीं है। एनी आपा ने उर्दू उपन्यासों को एक नया आवेग प्रदान किया। समाज का टूटा हारा थका इंसान किस तरह संघर्ष पथ पर अग्रसर होता है, इस स्थिति का प्रभावशाली चित्रण उनकी रचनाओं में मिलता है । भारत की मिली जुली संस्कृति का साकार चित्रण उनके उपन्यासों में हुआ। वह स्वयं बहुत ही फ़ख्र के साथ कहा करती थी कि हिंदुस्तान की सांझा संस्कृति किसी अखबार की सुर्खी की तरह नहीं है कि उसे अगले रोज ही भुला दिया जाए।
कुर्रतुल एन हैदर बिजनौर जनपद के नटहौर के जागीरदार घराने की वंशज थी। उनके पिता सज्जाद हैदर यलदरम ब्रिटिश शासन काल में अफगानिस्तान और टर्की समेत कई देशों में राजदूत रहे। एक कूटनीतिज्ञ के साथ ही साथ वह एक साहित्यकार भी थे, जिन्होने कि उर्दू में बहुत सी कहानियां लिखी थी। उनकी मां नज़र सज्जाद भी साहित्यिक अभिरुचि की महिला थी। घर के अदबी परिवेश का असर कुर्रतुल पर निर्णायक सिद्ध हुआ और वह अपने बचपन से ही लेखन की ओर प्रेरित हो गई। हांलाकि उनकी तालीम इंगलिश स्कूल कालिज में हुई इसके बावजूद वह पाश्चात्य रंग ढंग में कदाचित नहीं ढल सकी।
लखनऊ शहर में उनकी शिक्षा दीक्षा हुई। लखनऊ की तहजीब और तम्द्दुन उनकी रग रग में समा गया। यही कारण रहा कि उनकी रचनाओं में लखनउ का जिक्र बार बार आता है। मेरे भी सनम खाने नामक उपन्यास अवध की पृष्ठभूमि में सृजित किया गया। जीवन पर्यन्त वह गंगा-जमुनी तहजीब और संस्कृति की वह बहुत जोरदार पैरोकार रही। अवधी भाषा और यहां के लोक संगीत नृत्य में उनकी सदैव गहरी अभिरुचि रही। यही कारण संभवतया रहा कि लेखन में सांस्कृतिक परिपूर्णता के कारण ही उनकी रचनाओं के साथ हिंदी के पाठक भी जबरदस्त जुड़ाव महसूस करते हैं।
देश के बंटवारे के पश्चात अपने भाई मुस्तफा हैदर के साथ वह पाकिस्तान चली गई थी, किंतु वह पाकिस्तान में नहीं रह सकी। मुल्क का बंटवारा उन्हे कबूल नहीं हुआ। 1951 में पाकिस्तान से वह इंगलैंड चली गई। फिर वहां से लौटकर वह पाकिस्तान नहीं गई और वापस भारत आ गई। कुछ लोगो का कहना कि वह पं0 नेहरु के कहने पर भारत लौटने के लिए प्रेरित हुई थी। देश के विभाजन की विभीषिका ने कुर्रतुल को बुरी तरह से झकझोर डाला था। देश के विभाजन का दर्दो ग़म उनकी रचनाओं में बहुत ही शिद्दत के साथ शामिल रहा। यही कारण रहा कि वह फिरकापस्ती की घोर विरोधी बनी रही। यह बात उनके द्वारा अपने लेखन में सृजित पात्रों और चरित्रों स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है।
कुर्रतुल एन हैदर ने अविवाहित जीवन जिया। अपनी जिंदगी का अस्सी साला सफ़र बहुत ही तन्हा तय किया। एक जमींदार घराने की बहुत लाडली बेटी जिसे उच्च शिक्षा प्राप्त हुई । जो औरतों के पर्दानशीन होने का जबरदस्त विरोध करती रही। औरत की आज़ादी और उसके आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करती और जूझती रही किंतु उसे अपने मिज़ाज का कोई हमसफ़र नहीं मिला। वह प्रायः कहा करती थी कि हिंदुस्तानी तहजीब और संस्कृति हुक्म जारी नहीं करती कि यह करो और यह मत करो वरन् वह अच्छा संस्कार देती है, जिसको अपना कर इंसान बेहतर बनता जाता है।
अपने सख़्त पुरजोर बयानों में उन्होने हिंदू और मुस्लिम धर्मान्धो पर कडे़ प्रहार किए। इस मामले मे वह कबीर की अनुयायी रही। कबीर की तर्ज पर ही वह अपने उपर होने वालो आक्रमणों और आलोचना से बेपरवाह सी रह कर सृजन के रचनात्मक पथ पर अपने कदम अत्यंत दृढता के साथ बढाती गई। उनके मिज़ाज पर उनके बयानों पर और उनके लेखन पर हंगामा आराईयां होती रही, किंतु वह अत्यंत शांतभाव से अपने अध्ययन चिंतन और लेखन के बूते पर इंसानी जिंदगी को आज़ाद करने और उसे आत्म गौरव गरिमा प्रदान करने के लिए सक्रिय रही। उर्दू साहित्य का एक सितारा अस्त हुआ किंतु उसकी रौशनी युगों तक इंसान की राह को रौशन करती रहेगी ।
प्रभात कुमार रॉय
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