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पीपल की छाँव में खीर खाये एक अरसा हो गया है
मन फिर से चंचल है
तुम आओगी न, सुजाता !

उसके होने न होने से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ना था,
ऐसा तो नहीं कहता
लेकिन क्या वो
कोई आम, अशोक, महुआ या जामुन नहीं हो सकता था
या फिर,
वहीं उगा कोई पुराना छायादार ?
किन्तु, आज तक परित्यक्त !
हम मिथक तो
फिर भी गढ़ लेते !

उस पीपल में कुछ तो होगा
कि, गुजारी रात !
जब कि मैं पिशाच नहीं हूँ
न ब्रह्मराक्षस
मैं ब्राह्मण भी नहीं

किन्तु, अब
एक मुझे ही नहीं
एक पूरे समाज को चाहिये तुम्हारी पकायी खीर
चाहना व्यक्तिगत भले हो
उसकी उपलब्धियाँ सदा से सामाजिक होती हैं / यह सत्य है
पर अब
एक पूरा समाज नहीं सो पा रहा है, मेरी तरह
एक पूरे समाज की जिज्ञासा बलवती हो रही है अब

पूर्णत्व की चाह शारीरिक ही नहीं होती
यह वैचारिक पहलू वस्तुतः अनिवार्यता है
हर जीवित संज्ञा की
लेकिन, इसी के साथ पेट भी तो एक भौतिक सत्य है
जिसकी दासता की अपरिहार्य उपज
इस समाज के चार वर्ण..
आज तक !

मन फिर चंचल है
तुम आओगी न सुजाता !


*****
-सौरभ
*****
(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 28, 2014 at 11:07pm

आदरणीय अनिल कुमार ’अलीन’ जी, रचना के प्रति आपकी सकारात्मक सोच केलिए हार्दिक धन्यवाद..

Comment by अनिल कुमार 'अलीन' on February 5, 2014 at 9:53am

यह रचना पढ़ने के साथ ही आखों के सामने एक मार्मिक दृश्य उभरता गया......................


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 30, 2014 at 2:35pm

इस रचना पर अपनी सम्मति और सहमति देने के लिए आप सभी सुधीजनों के प्रति हृदय से आभारी हूँ.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 30, 2014 at 2:33pm

//जब आत्मा तृप्त होती है मन को सुकून मिलता है तो ऐसी स्थिति को बयां करने हेतु शब्द नहीं मिलते //

जी..

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 30, 2014 at 2:26pm

आदरणीय सौरभ सर जब आत्मा तृप्त होती है मन को सुकून मिलता है तो ऐसी स्थिति को बयां करने हेतु शब्द नहीं मिलते.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 30, 2014 at 2:26pm

//पीपल का पेड़ तो है मगर गौतम कहाँ.......?//

समष्टि में ..

सुना नहीं ..

एक पूरा समाज नहीं सो पा रहा है... 
एक पूरे समाज की जिज्ञासा बलवती हो रही है अब  ..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 30, 2014 at 2:24pm

//नि:शब्द हूँ आदरणीय सौरभ सर पता नहीं क्यूँ आँख भर आई /

वन्दनाजी, ऐसा होता है. अक्सर हुआ है..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 30, 2014 at 2:22pm

//इस रचना पर कुछ भी कहने के लिए शब्दकोष खंगालने के पश्चात प्राप्त कुछ नहीं होता सिवाय निःशब्द के//.

:-((( .. . ऐसा कौन सा शब्द मिला आखिर जिसके लिए शब्दकोश की आवश्यकता पड़ गयी ?

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 30, 2014 at 2:21pm

भाई बृजेशजी. आपने रचना की मूल भावदशा को समझा वही मेरे शब्दों और भावों को मिला सम्मान है.

हार्दिक धन्यवाद

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 30, 2014 at 2:07pm

आदरणीय सौरभ सर आखिरी ३० मिनट से इस रचना पर हूँ आगे बढ़ना चाहता हूँ लेकिन जब इस रचना से मन भरेगा तब ही इस रचना पर कुछ भी कहने के लिए शब्दकोष खंगालने के पश्चात प्राप्त कुछ नहीं होता सिवाय निःशब्द के. क्या कहूँ कैसे कहूँ किस तरह से कहूँ मुग्ध हूँ पढ़कर आत्मा तृप्त हो गई. साधुवाद साधुवाद

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