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श्रीराम कुछ क्रोधित होकर बोले, “हनुमान तुमसे सीता की ख़बर लाने को कहा था। तुमने लंका में आग क्यों लगा दी?”

हनुमान शांत भाव से बोले, “प्रभो! जब तक हम जैसे आदिवासी पहाड़ों की गुफाओं, जंगलों और खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं तब तक दुनिया में किसी को भी सोने के महल में रहने का अधिकार नहीं है। मुझे धरती पर हमेशा रहना है अतः मैं कभी मार्क्स, कभी मिन्ह, कभी लेनिन तो कभी माओ बनकर जनमानस तक ये संदेश पहुँचाता रहूँगा। सोने की लंका जलाकर मैंने इसकी शुरुआत की है प्रभो।“

हनुमान के इतना कहते ही श्रीराम ने उठकर उन्हें अपनी सीने से लगा लिया और सारी वानर सेना एक साथ बोल उठी, “कामरेड हनुमान की जय”। 

--------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by कवि - राज बुन्दॆली on January 8, 2014 at 8:28pm

वाह आदरणीय ,,,आपने बहुत सुन्दर तरीके से अपनी बात कह दी ,,,क्या बात है,,,,, ..बेहतरीन लघुकथा,,बधाई आपको,,,

Comment by Abhinav Arun on January 8, 2014 at 5:22pm
वाह आदरणीय श्री धर्मेन्द्र जी ..मन की कह दी मेरी ...चाहतों को बड़े सटीक शब्द ..प्लाट.. शिल्प ..सब अदभुत ..बेहतरीन लघुकथा ...साधुवाद साधुवाद !!

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