सूरज को पिघलते देखा है
वक्त के साथ रिश्तो को बदलते देखा है ।
दौलत के लिये अपनो को लडते देखा है ॥
लिये आग चढा था जो सुबह आसँमा पे
शाम उस सूरज को पिघलते देखा है ।।
तैरा था जो लहरो के विपरीत हरदम ।
साहिल पे उस जहाज को डूबते देखा है ।।
हुआ करती थी जहाँ संस्कारो की बाते ।
हाँ आज मैने उन घरो को टूटते देखा है ॥
बैठा था कल तक जो किस्मत के भरोसे
उस शख्स को आज हाथ मलते देखा है ॥
माँज के बर्तन जिसने पाला था बच्चो को ।
घर के बाहर उस माँ को सोते देखा है ।।
इठलाया था जो देवो के शीश पे चढ के ।
उस फूल को पैरो से कुचलते देखा है ॥
मद लोभ अन्हकार से भला बचा है कौन ।
रावण कौरब कंस को मरते देखा है ॥
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीया मीना जी, आदरणीया सविताजी , आदरणीया राजेश कुमारी जी सादर नमन ... रचना को आप का आशीष मिला तहेदिल से शुक्रिया ...धन्यवाद
सुन्दर मार्मिक प्रस्तुति ,अत्याचारियों का अंत भी होते देखा है बहुत खूब
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर गज़ल .. बधाई आप को आदरणीय
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