परीक्षाएं निकट थीं लेकिन टीचर पिछले कई दिनों से क्लास से गायब थे. पढ़ाई का बहुत हर्जा हो रहा था जिसे देखकर उसे बेहद गुस्सा आता. रह रह कर उसके सामने अपनी विधवा बीमार माँ का चेहरा घूम जाता, जो लोगों के घरों में झाड़ू पोछा कर उसे पढ़ा रही थी. आखिर उस से रहा न गया और वह शिकायत लेकर प्रधानाचार्य के पास जा पहुंचा।
“उस कक्षा में और भी तो विद्यार्थी है, सिर्फ तुम्हें ही शिकायत क्यों है।”
“क्योंकि मैं एकलव्य नहीं हूँ सर।”
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
बिलकुल.. शिक्षक की यह अकर्मण्यता बिलकुल सहनीय नहीं होनी चाहिए .... सार्थक प्रहार आदरणीय
भाई रविजी, आपकी प्रस्तुत लघुकथा शिक्षा के क्षेत्र में वेतनभोगियों की अकर्मण्यता पर सार्थक प्रहार करती हुई है. शिक्षक की लापरवाह अनुपस्थिति के कारण विद्यार्थियों की ऊहापोह प्रस्तुत करती इस कथा के लिए हार्दिक बधाइयाँ.
आपका प्रयास सतत हो और हमारे बीच आप बने रहें.. . शुभेच्छाएँ
आदरणीय रवि प्रभाकर जी,
एकलव्य को एक सर्वथा नये रुप में प्रस्तुत कर कथा को एक नया रुप् दिया है. बधाई..
सादर.
बेहतरीन लघु कथा ..सच है एकलव्य ने उस शख्स के लिए कीमत चुकाई जो गुरु कहलाने लायक नहीं था ..गुरु तो द्रोणाचार्य ही बने रहे उन्होंने कुछ नहीं सीखा ..तो कम से कम शिष्य ही सीख लें ..बेहतरीन बिचार ..सादर
आदरणीय रवि जी, गूढ़ता को उकेरती हुयी बहुत ही सुंदर कथा के लिए बधाई.
आदरणीय लघुकथा के जरिये बहुत ही गहरी बात कह दी आपने बहुत ही सार्थक लघुकथा आदरणीय बहुत बहुत बधाई
लघु कथा सार्थक है | अब प्रश् है की छत्रों को एकलव्य बनाना होगा या अध्यापको को द्रोनाचार्य | न सब एकलव्य बन सकते है और न सब गुरु ग्रोनाचार्य | केवल व्यवस्था ही सुधारनी होगी | लघु कथा के लिए बधाई
एकलव्य बनने से शिष्य तत्व का नाश होता है और गुरुता की स्थापना पर संदेह! इस वचनबद्धता के जाल से निकलने के लिए आवाज उठानी ही होगी! बधाई आ० रवि भाई जी!
बहुत बहुत
आ0 रवि प्रभाकर जी बहुत सुंदर लघु कथा , अपने शीर्षक को पूरा न्याय देती हुई , बहुत बधाई आपको ।
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