मंदिरों में है बसेरा मस्जिदों में घर तेरा
ऐ परिन्दा बोल आख़िर कौन है रहबर तेरा ?
तेरे ज़ख्मों को भरेगा कौन ऐ हिन्दोस्तां ?
मुददतों से है पड़ा बीमार चारागर तेरा
अम्न के दुश्मन ने फिर ओढ़ा है चाँदी का नक़ाब
हो न जाये बेअसर इस बार भी पत्थर तेरा
इस तरफ मोहताज टूटी खाट को आम आदमी
उस तरफ मख़मल पे सोता है हर इक नौकर तेरा
सोच दिल पे हाथ रखकर ऐ वतन के नौजवां
हादसों के बाद क्यों आता है नाम अक्सर तेरा
.
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आ० सुशील जी
हर एक शेर लाजवाब है...हार्दिक बधाई इस ग़ज़ल पर
आदरणीय सुशील जी बहुत ही उम्दा गजल पेश की है आपने बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
वाह वा कमाल की ग़ज़ल है एक एक शेर पर ढेरो दाद
"परिंदे" सौरभ जी इंगित कर चुके हैं ,, मैं भी यही कहने वाला था
हर शेर पर दिल से दाद दे रहा हूँ, आदरणीय सुशीलजी. कई शेर अलबत्ता सामान्य बातें साझा करते दीख रहे हैं, लेकिन क्या क़ायदे से कहते दीख रहे हैं ! ग़ज़ल से गुजरना भला लगा है.
यह अवश्य है कि आप अपनी ग़ज़ल के मिसरों का वज़्न प्रारम्भ में ही उद्धृत कर दें.
जैसे इस ग़ज़ल के मिसरों का वज़्न २१२२ २१२२ २१२२ २१२ है.
और,
ऐ परिन्दा बोल आख़िर कौन है रहबर तेरा .. ऐ परिन्दे, बोल आख़िर कौन है रहबर तेरा
शुभ-शुभ
उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई ...सादर
बहुत बढ़िया कटाक्ष
उस तरफ मख़मल पे सोता है हर इक नौकर तेरा....वाह
अंजामे मौत से डरता कौन है ?
मेरी बाजु से मुझे ये डसता कौन है ?
बहुत फ़रमाया है आपने अंजाम तो सोचना ही पड़ेगा
सार्थक रचना
बहुत बहुत बधाई
सोच दिल पे हाथ रखकर ऐ वतन के नौजवां
हादसों के बाद क्यों आता है नाम अक्सर तेरा................. बहुत खूब | बधाई आप को
बेहतरीन ग़ज़ल बधाई
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