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ग़ज़ल.....खंज़र चुभा किस धार से

2212/2212/2122/212

 दिल में तुम्हारे है जो मुझको बताना प्यार से

यूँ भूल कर हमको भला क्या मिला संसार से

यूँ जानकर रुसवा किया आज महफ़िल में भला 

जो तोड़कर नाता चले क्यूँ भला इस पार से

चुप सी है धड़कन मेरी अब दिल भी है खामोश तो

घायल हुआ दिल मेरा खंज़र चुभा किस धार से

नादान हूँ मैं या कि अहसान उनका है जरा 

वो रोक देते हैं मुझे शर्त कि दीवार से

वो प्यार के मंजर हमें आज भी भूले नहीं

दिल भी दिये,ख़त भी लिखे सब छुपा संसार से 

जो आँख में है प्यार वो क्यूँ दिखा ना यार को

जब राह देखा था कोई यूँ बड़े आसार से

अब सोहनीं, लैला कहाँ हीर की बातें करें

बस दिन गुज़रता था यहीं यार के दीदार से

तू छोड़ कर चल दे यहाँ प्यार की राहें जरा

फिर रोक ले न 'रवि' कोई यार के बाज़ार से

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मौलिक और अप्रकाशित-अतेन्द्र कुमार सिंह 'रवि'

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Comment by गिरिराज भंडारी on October 23, 2013 at 2:25pm

आदरणीय अतेन्द्र भाई , बहुत सुन्दर गज़ल कही है , बधाई !!! आदरणीय अरुण भाई की बतों का खयाल रखें !!!!

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 23, 2013 at 12:43pm

आदरणीय रवि भाई ग़ज़ल पर आपका प्रयास अच्छा है और अधिक बेहतर हो सकता था सभी अशआर समय और श्रम की मांग कर रहे हैं. प्रयास हेतु बधाई स्वीकारें

अब सोहनीं, लैला कहाँ हीर कि बातें करें ... ( ये शेर बेबह्र है कि को की कर लें ठीक हो जायेगा)

बस दिन गुज़रता था यहीं यार के दीदार से

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