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जुग की मांग 
समय की डिमांड 
बात मेरी मान 
बन जाएँ थेथर श्रीमान....

सलीकेदार लोगों को 
जीने नही देगा समाज 
भले से अच्छा था विगत 
लेकिन बहुत क्रूर है आज 

जीने की ये कला 
जिसे सीखने में सबका भला 
वरना रह जाओगे तरसते 
आपका हिस्सा ये थेथर 
झटक लेंगे हँसते-हस्ते...

हम जिस समय में जी रहे हैं 
उसमे बदतमीज़, कमीना, 
बेशरम और थेथर जैसे 
असंसदीय उपाधियों से 
बिभुषित होने में खुद को 
गौरवान्वित महसूस करते हैं लोग...

थेथर बनने की प्रक्रिया से 
क्या हम भी गुजरें श्रीमान...?

(मौलिक अप्रकाशित)

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Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 1:35am

रचना में दीखता हुआ सपाटपन है. लेकिन मानवीय-सामाजिक पतन से हृदय आहत है यह भी उतना ही सत्य है.

इस प्रस्तुति के लिए बधाई, आदरणीय

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on October 12, 2013 at 9:46pm

हम जिस समय में जी रहे हैं 
उसमे बदतमीज़, कमीना, 
बेशरम और थेथर जैसे 
असंसदीय उपाधियों से 
बिभुषित होने में खुद को 
गौरवान्वित महसूस करते हैं लोग...

मुझे नहीं पता 'थेथर' नाम से फिल्म है या नहीं पर अब विचार किया जाना चाहिए 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 11, 2013 at 3:43pm

आदरणीय अनवर जी ..आपकी इस उत्क्रिस्ट रचना के लिए आपको बधाई ....बिजय भाई की बातों से भी इत्तेफाक रखता हूँ ..सादर बधाई के साथ 

Comment by विजय मिश्र on October 9, 2013 at 2:47pm
अनवर भाई , फौरी आँखों से शायद इनकी जिंदगी थोड़ी रंगीन लगती हो मगर हकीकत जुदा है , ऐसे कमजात न खुद चैन से जी पाते हैं और ना ही दूसरों की अमन चैन को सलामत रहने देते हैं .ये जलील लोग जिल्लत की जिंदगी बसर करते हैं और छोटे-छोटे फाएदों के लिए हलकान रहते हैं .आपका गुस्सा जाएज है .

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 9, 2013 at 1:58pm

आदरणीय अनवर भाई , बहुत बढ़िया !!! हार्दिक बधाई !!!

Comment by Saarthi Baidyanath on October 9, 2013 at 8:31am

एक दैन्यदिन के मानवीय चिंतन को चरितार्थ किया आपने ...रचना के आख़िर में पाठकों से पूछा गया प्रश्न ... सचमुच उद्वेलित करता है !....बढ़िया :)

Comment by Sushil.Joshi on October 9, 2013 at 5:47am

थेथर बनने की प्रक्रिया से 
क्या हम भी गुजरें श्रीमान..... बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती इस कृति के लिए बधाई हो आदरणीय अनवर भाई...

Comment by Abhinav Arun on October 9, 2013 at 5:13am

....श्री अनवर जी कलम बेचैन है ... पर वे हैं कहाँ जिनकी हम जय बोले... हमारे बोलने के धर्म का निर्वाह आप जैसे कलमकार कर रहे हैं ..यहाँ सांत्वना देता है ... पर ये सूरत बदलने ..को कुछ और चाहिए लगता है ..विचार परक और सशक्त सामयिक स्वर लिए इस रचना के लिए हार्दिक साधुवाद !

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