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प्रेम-प्रेम की रट लगी, मर्म न जाने कोय!

देह-पिपासा जब जगी, गए देह में खोय!

 

मीरा का भी प्रेम था, गिरधर में मन-प्राण!

राधा भी थी खो गयी, सुन मुरली की तान!!

 

राम चले वनवास को, सीता भी थीं साथ!

बेर चखे थे राम ने, ले शबरी के हाथ!!

 

मन का मन से मेल है, मन का मन से संग!

नेह-डोर पर मन सधा, बिसरा सब तन-अंग!!

 

देह मोह का बंध है, यह माया का जाल!

देह-नशा जब सिर चढ़ा, तब आसा का हाल!!

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on October 1, 2013 at 5:10pm

आदरणीय संदीप भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on October 1, 2013 at 5:10pm

आदरणीय राम भाई आपका हार्दिक आभार! आपको दोहे पसंद आये, मेरा प्रयास सफल हुआ!

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 1, 2013 at 4:26pm

आदरणीय बृजेश भाई जी बहुत ही सुन्दर प्रेम रस में सराबोर उम्दा दोहे हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by रविकर on October 1, 2013 at 3:33pm

निर्दोष दोहे-
आभार आदरणीय-

देह नेह दुःख गेह है, किंचित नहिं संदेह |
आशा करते मेह की, खा ओले *अवलेह ||

*चटनी

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 1, 2013 at 2:14pm

बहुत सुन्दर दोहे आदरणीय सादर बधाई स्वीकारें

Comment by ram shiromani pathak on October 1, 2013 at 12:16pm

मीरा का भी प्रेम था, गिरधर में मन-प्राण!

राधा भी थी खो गयी, सुन मुरली की तान!!बहुत सुन्दर

बहुत सुन्दर दोहे रचे है अपने आदरणीय भाई ब्रिजेश जी //सादर 

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