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हाथ काटे जा चुके हैं फिर तू आंखें लाल कर ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

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कोशिशों का अब कहीं नामों निशां रहता नहीं 

हाल अपना संग है वो ,जो कभी ढहता नहीं

हादसे कैसे भी हों कितने भी हों मंज़ूर सब

ख़ून अब बेजान आंखों से कभी बहता नहीं

मेरी क़िस्मत खोज कर के थक गयी मुझको वहाँ

जिन ठिकानो पर कभी मै भूल कर रहता नहीं

मुश्किलें खुद राह देंगीं रास्ते पर आ उतर  

ताल सड़ जाता है सुन ले, जो कभी बहता नहीं

हाथ काटे जा चुके हैं फिर तू आंखें लाल कर

आग सीने में अगर हो, चुप कभी सहता नहीं

मुश्किलों से इस क़दर तू आज रंजीदा न हो

कौन ऐसा सूर्य है , राहू जिसे गहता नही

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 4, 2013 at 6:06am

आदरणीय सुरेन्द्र भाई , स्नेह के लिये आपका बहुत आभार !! ऐसे ही स्नेह बनाये रखें !! पुनः आभार !!

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on October 4, 2013 at 12:37am

प्रिय गिरिराज भाई ...माह के सक्रीय सदस्य चुने जाने पर बहुत बहुत बधाई ...ये सक्रियता यूं ही बनी रहे और अपना ये मंच और समाज इस का भरपूर लाभ लेता रहे ..शुभ कामनाएं
जय श्री राधे
भ्रमर ५


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 3, 2013 at 7:48am

आदरणीय सौरभ भाई , सबसे पहले तो मै आपकी पारखी नज़रों को सलाम करना चाहता हूँ !! दूर से ही आपने समझ लिया गज़ल मे मेहनत कम हुई है !!! जब पहली बार इसे पोस्ट किया तो पोस्ट करने के बाद और अप्रूवल से पहले मुझे पता  चला कि इसमे क़ाफिया का ईता दोष है , एडिट करने के लिये वापस लिया तो ईलेक्शन ड्यूटी मे जाने के लिये 15 मिनट बचा था , हडबडी मे कई शेर सुधारा और पोस्ट कर दिया !!!!आपको सब पता चल गया !!!! पारखी नज़रों के लिये आपको ढेरों दाद !!!!!

                            विस्तार से गलतियों को समझाने के लिये आपका बहुत आभार !! आगे से और मेहनत करूंगा !!

  और कम से कम गलतियाँ हो इसका प्रयास करते रहूंगा !!! सादर !!!                                                           


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 3:45am

कोशिशों का अब कहीं नामों निशां रहता नहीं
हाल अपना संग है वो ,जो कभी ढहता नहीं... . .. .मतला मुझे बहुत स्पष्ट नहीं हुआ, आदरणीय.

हादसे कैसे भी हों कितने भी हों मंज़ूर सब
ख़ून अब बेजान आंखों से कभी बहता नहीं......... वल्लाह ! खून के आँखों से टपकने या बहने को सुन्दरता से प्रयोग किया है आपने ! वाह-वाह !

मेरी क़िस्मत खोज कर के थक गयी मुझको वहाँ
जिन ठिकानो पर कभी मै भूल कर रहता नहीं.......... यह ग़ज़ल का सबसे प्यारा शेर माना जाना चाहिये. यों, ’खोज कर के’ में ’कर के’ एक ग़लत प्रयोग है जो बोलचाल में लोग प्रयुक्त भले करें लेकिन नियमतः अशुद्ध प्रयोग है.

मुश्किलें खुद राह देंगीं रास्ते पर आ उतर  
ताल सड़ जाता है सुन ले, जो कभी बहता नहीं.......... काश इस शेर पर और मेहनत हुई होती. दोनों मिसरों के मध्य राबिता कायदे से नहीं बन पारहा है.

हाथ काटे जा चुके हैं फिर तू आंखें लाल कर
आग सीने में अगर हो, चुप कभी सहता नहीं........... ..कोशिश कीजिये, आदरणीय़. यह शेर और सटीक हो सकता है.

मुश्किलों से इस क़दर तू आज रंजीदा न हो
कौन ऐसा सूर्य है , राहू जिसे गहता नही..................... क्या सांत्वना है ! बहुत सही बात भाईजी.


शुभकामनाएँ व बधाइयाँ.. .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2013 at 9:53pm

आदरणीय विन्ध्येश्वरी भाई जी , गज़ल की सराहना के लिये और उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत आभार !! आदरणीय ग्रसता सच मे सही शब्द है पर काफिया मिलाने के लिये मै गहता शब्द उपयोग किया हूँ , कहता , सहता , गहता आदि ही लेना ज़रूरी था !! सही शब्द सुझाने के लिये आपका आभार !! ऐसे ही स्नेह  बनाये रखें !! सादर !!

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on October 2, 2013 at 7:13pm
आदरणीय गिरिराज जी! आपने बहुत ही उम्दा गजल कहा है। बधाई।
अंतिम शेर में क्या //गहता// की जगह //ग्रसता// उचित नहीं होगा।क्योंकि मेरा मानना है राहु चंद्र या सूर्य को गहता (पकड़ता) नहीं बल्कि ग्रसता (निगलता) है।
अन्यथा मत लीजियेगा। यदि उचित न हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।
सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2013 at 11:18am

आदरणीया सरिता जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत बहुत आभार !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2013 at 11:17am

आदरणीय बडे भाई विजय जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया !!!!!

Comment by Sarita Bhatia on October 2, 2013 at 10:44am

वाह बहुत हि खुबसूरत गजल ,बधाई आदरणीय 

Comment by vijay nikore on October 2, 2013 at 5:21am

बहुत ही मनमोहक .... बहुत ही खूबसूरत गज़ल है। बधाई, भाई गिरिराज जी।

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