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धर्म हूँ मैं

नख-दंत के संसार में गुम

ढूंढता निज मर्म हूँ  मैं

ये रूचिर

रूपक तुम्‍हारे

गुंबजों की

पीढि़यां

दंगों के

फूलों से चटकी

कुछ आरती,

कुछ सीढि़यां

थुथकार की सीली धरा पर

सूखता गुण-धर्म हूँ मैं

रंगों की

थोड़ी समझ है

कृष्‍ण तक तो

श्‍वेत था

आह्लाद के

परिपाक में भी

एकसर

समवेत था

युगबोध पर कहता मुझे है

कि नहीं यति-धर्म हूँ मैं

तन ऐंठती

धूसर हवाएं

छीजता

विश्‍वास है

प्राचीर में

पैबस्‍त जड़ भी

करती मेरा

उपहास है

किरदार जो आए नए हैं

कहते हैं अपकर्म हूँ मैं

अब कोई

सुनता कहां है

इस पुरा

फ़नकार को

अभ्‍यस्‍त हैं

अब यूथ सारे

सीत्‍कार को

चीत्‍कार को

चीथड़े वल्‍कल मेरे अब

जीर्ण सा इक वर्म हूँ मैं

(सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित)

यति  - धर्म : सनातन धर्म के अर्थ में प्रयुक्‍त

वर्म : घर के अर्थ में प्रयुक्‍त

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Comment by राजेश 'मृदु' on September 26, 2013 at 5:51pm

आदरणीय अभिनव अरूण जी, आपने हमें हमेशा ही प्रोत्‍साहित किया है, आपका हार्दिक आभार

Comment by राजेश 'मृदु' on September 26, 2013 at 5:49pm

आदरणीय रविकर जी, कुंडलियां छंद में आपकी प्रतिक्रिया लाजवाब है, अनुपम है । आपका आभार भी व्‍यक्‍त करते हुए आंख लजाती है कि जो प्रतिक्रिया है वह इतनी समृद्ध है कि मेरा पूरा वजूद बौना पड़ गया , सादर

Comment by Abhinav Arun on September 26, 2013 at 5:20pm

अति सुन्दर सार्थक सशक्त सामयिक कवी के युगधर्म के निकष पर खरी रचना .साधुवाद और बधाई आपको !!

Comment by रविकर on September 26, 2013 at 5:06pm

सद्कर्मी हे मान्यवर, हितकारी साहित्य |
करते जागृति प्राणि जग, यही श्रेष्ठतम कृत्य |


यही श्रेष्ठतम कृत्य, धर्म दिखता बेचारा |
हुआ भोग का भृत्य, चरण चौथा भी वारा |


सफल हुवे राजेश, नहीं दिखलाते नरमी |
खरी खरी कह बात, सिद्ध होते सद्कर्मी ||

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