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देते है आशीष वे, सर पर रखते हाथ

मन में श्रद्धा भाव हो, तभी श्राद्ध यथार्थ |

तभी श्राद्ध यथार्थ, सभी है उनकी माया

समझों वे है साथ, मिले उनकी ही छाया

मिले सभी संस्कार संज्ञान में जो लेते

माने हम उपकार,  पूर्वज ख़ुशी ही देते |

    

(2)

देवर हो लक्ष्मण तभी, सीता दे वर माथ   

माँ का हो आशीष तो मिले जगत का साथ |

मिले जगत का साथ, साथ में प्रभु की छाया

भ्राता से हो प्यार, सुखो का घर में साया

घर का हो कल्याण दिखता न कोई तेवर

पाकर सुन्दर सीख बने जो काबिल देवर |

(मौलिक व् अप्रकाशित)

-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला 

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 25, 2013 at 4:21pm

छंद पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार श्री गिरिराज भंडारी जी एवं श्री (डॉ) अनुराग सैनी जी | सादर 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 25, 2013 at 4:19pm

उचित सुझाव हेतु धन्यवाद एवं कुंडलिया छंद सामयिक बता सराहने की लिए हार्दिक आभार भाई श्री रविकर जी 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 25, 2013 at 3:47pm

आदरणीय दोनों ही कुण्डलिया छंद बहुत ही सुन्दर बन पड़े हैं इस हेतु बधाई स्वीकारें. आदरणीय प्रथम कुण्डलिया में दोहे का प्रथम चरण स्पष्ट नहीं लगा और द्वतीय कुण्डलिया में रोला एक एक चरण में मात्रा अधिक हो रही जो कि इस प्रकार है.

1. पूर्वज दे आशीष ही .. आदरणीय कुछ अटपटा सा लग रहा है

२. घर का हो कल्याण दिखावे न कोई तेवर (यहाँ मात्रा 14 हो रही है कृपया पुनः देख लें)

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on September 25, 2013 at 3:40pm

समसामयिक और प्रभावी ! शब्दों के क्रम को दुरुस्त कर दें ! आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2013 at 2:07pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , बहुत अच्छी  सामयिक छंद की रचना की !! बधाई

Comment by रविकर on September 25, 2013 at 11:42am

पहली कुण्डलियाँ की प्रथम पंक्ति ऐसे कर लें-


देते हैं आशीष वे , सर पर रखते हाथ |
सादर

Comment by रविकर on September 25, 2013 at 11:38am

माने हम उपकार, ख़ुशी ही पूर्वज देते |

पहली में शब्द आगे पीछे करना है-

दूसरी कुंडलियाँ में
सुयोग्य को काबिल कर पढ़ें आदरणीय-

शुभकामनायें सामायिक कुंडलियाँ छंद हेतु-
सादर

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