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माँ ममता की लाली घर आँगन छा जाए

जब प्राची की गोद बाल दिनकर आ जाए ।

कलरव कर कर पंछी अपना सखा बुलाएं

चलो दिवाकर खुले गगन क्रीड़ा हो जाए ॥

 

सब जग में सुन्दरतम तस्वीर यही मन भाती

गोद हों शिशु अठखेलियाँ मैया हो दुलराती |

लगे ईश सी चमक मुझे उन नयनों से आती

तभी यक़ीनन नित प्रातः प्राची पूजी जाती ||

 

शीत काल है जब जब कठिन परीक्षा आई

खेल हुआ है कम तब तब रवि करे पढाई ।

और, स्वतंत्र हो खूब सूर्य तब चमक दिखाए

विद्यालय हो बंद, ग्रीष्म जब छुट्टी आये ॥

 

छोड़ो यह खिलवाड़, है आता यौवन जब रे

पश्चिम की प्रमदा सूर्य पर डारे डोरे ।

चुम्बन से अंग अंग उसका जब भानु सजाए 

लाज लालिमा चुनर ओढ़ पश्चिम शर्माए ॥

 

प्रणय मिलन में तन जब दोनों का है अकड़े

निज बाहों में खींच प्रभाकर पश्चिम जकड़े ।

अपने कारे केश फेर अंबर पर देती  

करती जग अंधियार डुबो खुद में रवि लेती || 

 

जब यौवन का ज्वार उतर शीतल हो जाता

रवि को आती याद है उसकी प्राची माता ।

कहता "सुन हे प्रिये, मात के पास रहेंगे

पूर्ण जगत की भांति नमन नित उन्हें करेंगे” ॥

 

लेकिन, पश्चिम चिढ़ी सासु संग नहीं रहूंगी

सब प्राची को मान, वेदना नहीं सहूँगी ।

पूर्व पड़ोसन दक्षिण उससे सदा जली है

मिले न प्राची पश्चिम, द्वय के बीच खड़ी है ॥

 

इस पर देखो बही है शीतल सी पुरवाई

बहू को अनुभव कथा, पूर्वा ने कहलाई ।

“तुम पश्चिम हो मुझे तुम्हे कोई पूर्व कहेगा

अचर नहीं कुछ जगत, चक्र में सब बदलेगा” ॥

 

यौवन का पर जोश वधू में भरा हुआ है

बोली भानुप्रिया, बही तब गर्म हवा है ।

“छोड़ो तुम आध्यात्म, पश्चिमी स्वार्थ सुनो

जब झुकनी है कमर, मान में कुछ तो झुको” ॥

 

निशिदिन यह आदित्य, चक्र नियमित दुहराता

घर घर में चल रही पुरातन है यह गाथा ।

मिलन को न तैयार हैं प्राची पश्चिम अकड़े

फिर कैसे तब बंद हों सास बहू के झगड़े ॥

 

मौलिक एवं अप्रकाशित

‘प्रदीप’

२४ सितम्बर २०१३

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Comment

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Comment by Pradeep Kumar Shukla on September 25, 2013 at 4:38pm

आपने सही कहा विजयश्री जी 'देख बड़ों का हाल आँख से बरसे पानी' ... मनोबल बढ़ने के लिए शुक्रिया

Comment by Pradeep Kumar Shukla on September 25, 2013 at 4:33pm

इन सुंदर शब्दों में स्वागत और उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार अरुण शर्मा 'अनंत' जी

Comment by vijayashree on September 25, 2013 at 3:53pm

प्रतिदिन यह आदित्य, कथा चक्र दुहराता

घर घर में चल रही पुरातन है यह गाथा ।

मिलन को न तैयार हैं प्राची पश्चिम अकड़े

फिर कैसे हों बंद सास बहू के झगड़े ॥

 

यथार्थ चित्रण बधाई स्वीकारें प्रदीप कुमार जी 

घर घर की है आज बस यही कहानी 

देख बड़ों का हाल आँख से बरसे पानी 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 25, 2013 at 2:09pm

क्या कहने आदरणीय सर्वप्रथम ओ बी ओ परिवार में आपका ह्रदय से स्वागत है प्रथम रचना ही शानदार कही है आपने कितनी सुन्दरता से सास और बहू का उदाहरण प्रस्तुत किया है आपने देखते ही बनता है, प्रकृति का सुन्दरता से वर्णन किया है आपने दिल खुश हो गया रचना पढ़कर दिल से ढेरों बधाई स्वीकारें.

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