अर्द्ध रजनी है , तमस गहन है,
आलस्य घुला है, नींद सघन है.
प्रजा बेखबर, सत्ता मदहोश है,
विस्मृति का आलम, हर कोई बेहोश है.
ऐसे में कौन रोता है , यहाँ?
रंगशाला रौशन है, संगीत है, नृत्य है,
फैला चहुँओर ये कैसा अपकृत्य है.
जो चाकर है, वही स्वामी है
जो स्वामी है, वही भृत्य है .
ऐसे में कौन रोता है , यहाँ?
बिसात बिछी सियासी चौसर की
शकुनी के हाथों फिर पासा है .
अंधे, दुर्बल के हाथों सत्ता है
शत्रु ने चंहुओर से फासा है .
ऐसे में कौन रोता है , यहाँ?
पांचाली का रूदन अरण्य है,
(दु) शासन का कृत्य जघन्य है .
शांत पड़े मुरली के स्वर
स्व धर्म का अभिमान शून्य है.
ऐसे में कौन रोता है , यहाँ?
कल की किसी को परवाह नहीं है,
स्वदेश हित की चाह नहीं है
सबकी राहें हैं जुदा जुदा
देश की एक कोई राह नहीं .
ऐसे में कौन रोता है , यहाँ?
नीरज कुमार
पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित
विधा : छंद मुक्त
Comment
आदरणीय बैद्यनाथ सारथी जी हार्दिक आभार
पठनीय और सार्थक रचना...बढ़िया शिल्प ...| बधाई मान्यवर :)
आदरणीय शिरोमणि पाठक जी बहुत आभार आपका ..
बहुत सुन्दर रचना आदरणीय बहुत बहुत बधाई//
आदरणीय सौरभ जी बहुत हार्दिक आभार आपका .. दरअसल देश पहले से भी ऐसा ही था इसीलिए सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहा , लेकिन गुलामी के काल में चूँकि जुल्म होते थे, धन और इज्जत लूट ली जाती थी तो लोग अत में थोड़े सजग हो गए और विवेकानंद सरीखे संतो ने निज धर्म और राष्ट्र की अस्मिता के प्रति प्रेरणा दी. परन्तु आज़ादी के बाद की स्थिति बहुत भयावह है, आज का युवा सिर्फ आज का कैरियर, आज का पैसा , आज की मस्ती देख रहा है, सिनेमा, नाच गाना , शराब , ऐश , मौज यही ध्येय है , परन्तु वह कल की नहीं सोच रहा जब उससे ये सारे मौके छीन जायेंगे और उसे उसके जीने की भी कीमत चुकानी होगी , लेकिन आज सब मस्त है, मदहोश हैं , सत्ता शीर्ष पर बैठे लोग भी स्वार्थी हो रखे हैं, आज के युवा से धर्म की बात कीजिए तो उन्हें विरक्ति होती है, उन्हें अपने मर्म का भान ही नहीं है, इसीलिए जब कोई दूसरा उनके दर्शन की शिकायत करता है तो वे शर्मशार हो जाते हैं ... आपका बहुत बहुत धन्यवाद.
वैचारिक रूप से चाहे कोई मनस कितना ही उन्नत क्यों न हो अपने कालखण्ड के प्रभाव को तिरोहित कर सके ऐसा कम ही हो पाता है. देश के आजकी दशा को शब्दों में बाँधना श्राप सदृश लगता है. ऐसे में, रुदन एक पक्षीय हो तो व्याप गयी समस्याओं के विरुद्ध समाधान भी होता है, किन्तु, अनवरत का रुदन पीड़ित को सदा हल्का नहीं कर देता, यदि उसका प्रभाव सामाजिक रूप से व्यापक और सनातन हो.
आपकी रचना का फलक बहुत बड़ा है, आदरणीय. मुझे दिनकर के खण्डकाव्य कुरुक्षेत्र की प्रथम पंक्तियों का स्मरण हो आया--
वह कौन रोता है इतिहास के अध्याय पर ?
यह उत्तरित प्रश्न एक पूरे कालखण्ड को ही नहीं इस भूमि के इतिहास को प्रभावित करने वाला है.
आपकी रचना के लिए बधाइयाँ.
जीतेन्द्र गीत जी हार्दिक आभार आदरणीय ..
आभार मीना पाठक जी
अति सुंदर रचना , बधाई स्वीकारें आदरणीय नीरज जी
बहुत सुन्दर रचना .. बधाई आप को
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