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ग़ज़ल : मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

 

मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ

महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ

 

मौका मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी

तीखी ढलान पे न फिसलती हैं चींटियाँ

 

रक्खी खुले में यदि कहीं थोड़ी मिठास हो

तब तो न उस मकान से टलती हैं चींटियाँ

 

पुरखों से जायदाद में कुछ भी नहीं मिला

अपने ही हाथ पाँव से पलती हैं चींटियाँ

 

शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई

अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चीटियाँ

 

सड़कों पे देखभाल के ‘सज्जन’ चलो, यहाँ

भोजन तलाशने को निकलती हैं चींटियाँ

--------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 672

Comment

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Comment by राज़ नवादवी on September 12, 2013 at 10:54pm

'शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई

अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चीटियाँ'

अच्छा शेर कहा है आपने. 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 12, 2013 at 10:46pm

अरे! सौरभ जी सचमुच तकाबुले रदीफ़ पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था। बहुत जल्द इस शे’र का त्रुटिमुक्त वर्ज़न आपकी आँखो के लिए पेश किया जाएगा। :)

इस मुखर स्नेह के लिए बहुत बहुत आभारी हूँ। स्नेह छत्र यूँ ही तना रहे।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 12, 2013 at 10:44pm

बहुत बहुत शुक्रिया  विजय मिश्र जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 12, 2013 at 10:44pm

बहुत बहुत धन्यवाद डॉ. अनुराग सैनी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 12, 2013 at 10:43pm

बहुत बहुत शुक्रिया  MAHIMA SHREE जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 12, 2013 at 10:43pm

बहुत बहुत धन्यवाद अरुन शर्मा 'अनन्त' जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 12, 2013 at 5:54pm

मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ
महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ
ऐसे मतले वाली ग़ज़ल को आज देख रहा हूँ ?! ..ओह ओह..

मतला के आगे एक और शेर ने ध्यान खीचा..
शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई
अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चीटियाँ..  
आय हाय ! ये मासूमियत ! कौन न मर जाये ऐ खुदा .. :-))))

और मक्ता में ख़ाम्ख़ाह तकाबुलेरदीफ़ को न्यौत बैठे. रवानी टूटी सी लगी, सो अलग.
वैसे भी, चलो यहाँ  को चला करो करने से कोई दिक्कत हो रही हो तो बताइयेगा साहब.
वैसे ये मकता बहुत कुछ चीखता हुआ भी चुपचाप सा दिखता है. समभालना था इसे.

कुल मिला कर बधाई बधाई

Comment by विजय मिश्र on September 12, 2013 at 5:26pm
अत्यंत सारगर्भित रचना और सीधे-सादे शव्दों में सबकुछ कहतीं हुईं .

" हाथी से कमतर नहीं हैं आपकी ये चीटियाँ "
आभार धर्मेन्द्जी
Comment by डॉ. अनुराग सैनी on September 12, 2013 at 5:13pm

दिल से अब तो हमे बजानी होगी सीटियाँ, एक अलग अंदाज़ , बधाई स्वीकारें 

Comment by MAHIMA SHREE on September 11, 2013 at 9:21pm

मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ

महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ

 

 

पुरखों से जायदाद में कुछ भी नहीं मिला

अपने ही हाथ पाँव से पलती हैं चींटियाँ......

वाह शानदार गजल .. बहुत २ बधाई आदरणीय

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