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हाँ मै चोर हूँ [लघु कथा ]

फैक्ट्री के आफिस के सामने एक लम्बी सी कार  आ कर रुकी और भुवेश बाबू आँखों पर काला चश्मा चढ़ा कर आफिस में अपना काला बैग रख कर वह किसी मीटिग के लिए चले गए, जब वह वापिस आये तो उनके बैग में से किसी ने पचास हजार रूपये निकाल लिए थे। आफिस के सारे कर्मचारियों को पूछताछ के लिए बुलाया गया, सबकी नजरें सफाई कर्मचारी राजू पर टिक गई क्योकि उसे ही भुवेश बाबू के कमरे से बाहर आते हुए देखा गया था। अपनी निगाहें नीची किये हुए राजू के अपना गुनाह कबूल कर लिया और मान लिया कि वह ही चोर है, पुलिस आई और राजू को पकड़ कर जेल ले गई । पास ही के एक अस्पताल में राजू के बीमार कैंसर से पीड़ित बेटे का ईलाज चल रहा था । 

रेखा जोशी 

मौलिक एवं अप्रकाशित रचना 

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Comment

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Comment by Rekha Joshi on August 31, 2013 at 12:30pm

आदरणीय  बागी ,इस कथा में समाज का एक विक्षिप्त चेहरा दिखाई दे रहा है ,राजू ने चोरी की और उसे कबूल  भी कर लिया ,सजा भी लेने को तैयार हो गया क्योंकि उसके बेटे की जिंदगी इन सब से उपर थी ,सादर 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 31, 2013 at 12:28pm

फैक्ट्री के आफिस के सामने एक लम्बी सी कार  आ कर रुकी और भुवेश बाबू आँखों पर काला चश्मा चढ़ा कर आफिस में अपना काला बैग रख कर वह किसी मीटिग के लिए चले गए, जब वह वापिस आये तो उनके बैग में से किसी ने पचास हजार रूपये निकाल लिए थे। आफिस के सारे कर्मचारियों को पूछताछ के लिए बुलाया गया, सबकी नजरें सफाई कर्मचारी राजू पर टिक गई क्योकि उसे ही भुवेश बाबू के कमरे से बाहर आते हुए देखा गया था। अपनी निगाहें नीची किये हुए राजू के अपना गुनाह कबूल कर लिया और मान लिया कि वह ही चोर है, पुलिस आई और राजू को पकड़ कर जेल ले गई । पास ही के एक अस्पताल में राजू के बीमार कैंसर से पीड़ित बेटे का ईलाज चल रहा था, पुलिस का शक और पुख्ता हो गया था । 

उधर भुवेश बाबू का बेटा क्लब में दोस्तों के साथ अय्याशी पार्टी कर रहा था,  दोस्तों के कुरेदने पर बस इतना ही कहा, "यार बाप का पैसा भी अपना ही होता है, आज सुबह उनके बैग से मैंने …… "

(अब जरा देखें ) 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 31, 2013 at 12:19pm

लेखिका आखिर क्या सन्देश देना चाहती हैं ? राजू को मज़बूरी मे चोरी करना जायज है !!, चोरी कर गुनाह कुबूल कर लेना उसकी महानता !! चोरी जैसा गुनाह कर लिया तो झूठ बोल नकारने में क्या दिक्कत, अब तो नौकरी भी गई ,तो इलाज तो दूर रोटी पर भी आफत । माफ़ करियेगा आदरणीया किन्तु यह लघुकथा केवल लिखने के लिए लिखी गई है, निहित तत्व कुछ भी नहीं, बैग काला हो या लाल क्या फर्क पड़ता था !

Comment by Rekha Joshi on August 31, 2013 at 11:55am

Shubhranshu Pandey जी ,आपकी प्रतिक्रिया  का स्वागत है ,लेकिन माफ़ कीजिए आपने कथा के मर्म को समझने की पूरी कोशिश नही की ,अमीर और गरीब के बीच बढ़ते अंतर और जब  किसी गरीब की मूलभूत जरूरते भी पूरी न हो पायें तो ऐसे में किसी गरीब का न चाहते हुए भी मजबूरी में गुनाह  करना कोई आश्चर्य की बात नही है ,आभार 

Comment by Shubhranshu Pandey on August 31, 2013 at 11:04am

आदरणीय रेखा जी, इस कथा में पूर्णता की कमी सी लग रही है.ये कथा किसी बडे़ कथा का भाग लग रही है. इस तरह की कथाओं के अनुत्तरित प्रश्नों को एक स्पष्ट आधार की जरुरत है. वो आधार् सम्यक और समीचीन हो .

माफ़ करियेगा ,लेकिन इस कथा के विचार के समर्थन में अपने विचार देने और कानून को टोकरे में डालने या ढोने की बात कहने वाले पाठक पहले ये तो सोच लें कि कहीं ये टोकरा पलट गया तो जिस घर में बैठ कर अभी ये नेट का मजा ले रहे हैं वो सब एक झटके में कोई अपनी मजबूरी बता कर ले के चला गया तो क्या वे ऐसी ही प्रतिक्रिया देंगे ? .. या फिर उनके अर्जन पर अब तो प्रश्न उठाया जा सकता है. मुट्ठियाँ बाँधना और चीखना एक बात और समाज को समझना एक बात... .

सादर.

Comment by Rekha Joshi on August 28, 2013 at 5:39pm

जितेन्द्र जी ,annapurna bajpai जी ,गिरिराज भंडारी जी ,श्याम जुनेजा जी ,प्रतिक्रिया देने पर आप सभी का हार्दिक आभार ,हमारे देश में अमीर और गरीब के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है जो सच में विचारणीय है ,धन्यवाद 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 28, 2013 at 11:27am

छोटी किन्तु बहुत कुछ सोचने पर विवश करती लघुकथा, हार्दिक बधाई आदरणीया रेखा जी

Comment by annapurna bajpai on August 27, 2013 at 11:16pm

आ० रेखा जी कुछ मार्मिक किन्तु अधूरे प्रश्नो को छोड़ती आपकी लघु कथा , हार्दिक शुभेच्छाए । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 27, 2013 at 6:46pm

आदरणीया रेखा जी , आपकी छोटी से कथा बहुत से प्रश्न दिमाग मे छोड़ गई सोचने के लिये !! बधाई !!

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