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हो नहीं आक्रांत,
समर्पण भाव पर
सुर्ख आह्लाद की
जो छाप है,
भाव उन्नत उपजते
बुद्धि उर्वर,विवेक में
समृद्ध मनन का निवास है,
ना विकलता,
उर में यदि
धवल शान्ति का
प्रकाश विद्यमान है,
जीवन्तता
निरन्त चक्र सम
चैतन्यता
रग-रग मे तुम्हारे जो व्याप्त है,
तो समझ लो
हे आत्मन्!
ये तुम्हारा ही नहीं
राष्ट्र का उत्थान है।
स्व से उठकर
'पर' पर जो तुम्हारा राग है,
ध्वज तुम्ही हो,आन और...
राष्ट्र-गौरवगान हो।
-विन्दु
(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment by ram shiromani pathak on August 20, 2013 at 2:52pm

आदरणीया वंदना जी,अतीव सुन्दर रचना ///कई बार पढ़ा मैंने /// हार्दिक बधाई

Comment by रविकर on August 19, 2013 at 10:56am

बढ़िया-है आदरणीया वंदना जी-
शुभकामनायें-

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 18, 2013 at 8:21pm

सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई आदरणीया वंदना जी

Comment by राज़ नवादवी on August 18, 2013 at 11:53am

'उर में यदि
धवल शान्ति का
प्रकाश विद्यमान है,
जीवन्तता
निरन्त चक्र सम
चैतन्यता
रग-रग मे तुम्हारे जो व्याप्त है,
तो समझ लो
हे आत्मन्!
ये तुम्हारा ही नहीं
राष्ट्र का उत्थान है।'

ये पंक्यियाँ सुन्दर बन पडी हैं यद्यपि पूर्ण कविता में विन्यास के गठाव की संभावनाएं भी शेष हैं. बधाई हो! 


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Comment by गिरिराज भंडारी on August 17, 2013 at 5:17pm

बहुत अच्छी रचना , अति सुन्दर !! बधाई !!

Comment by annapurna bajpai on August 17, 2013 at 1:52pm
आदरणीया वंदना जी अनुपम रचना के लिए बधाई आपको ।
Comment by Shyam Narain Verma on August 17, 2013 at 12:00pm
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको!

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