नव निशा की बेला लेकर,
साँझ सलोनी जब घर आयी।
पूछा मैंने उससे क्यों तू ,
यह अँधियारा संग है लायी॥
सुंदर प्रकाश था धरा पर,
आलोकित थे सब दिग-दिगंत।
है प्रकाश विकास का वाहक,
क्यों करती तू इसका अंत॥
जीवन का नियम यही है,
उसने हँसकर मुझे बताया।
यदि प्रकाश के बाद न आए,
गहन तम की काली छाया॥
तो तुम कैसे जान सकोगे,
क्या महत्व होता प्रकाश का।
यदि विनाश न हो भू पर,
तो कैसे हो परिचय विकास का॥
दुख के भय से सुख की पूजा,
नफरत से अस्तित्व प्यार का।
इसीलिए तो हे प्रिय ‘दर्पण’,
परिवर्तन नियम संसार का॥
(सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित-प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’)
Comment
बहुत सही.
प्रयासरत रहें .. रचनाएँ पढ़ें और उन्हें समझने की कोशिश करें
वैसे
नव निशा की बेला लेकर,
साँझ सलोनी जब घर आयी... इन पंक्तियों के माने क्या हुए ?
शुभेच्छाएँ
बढ़िया है। इस प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई!
दुख के भय से सुख की पूजा,
नफरत से अस्तित्व प्यार का।
इसीलिए तो हे प्रिय ‘दर्पण’,
परिवर्तन नियम संसार का...........andhkaar n hota to sachumuch prakash kee keemat pata nahee chaltee ...behtaree saadar badhayee
प्रदीप भाई जी प्रयास बहुत सुन्दर है बधाई स्वीकारें
बहुत सुन्दर भाव लिए अच्छी रचना हुई है भाई श्री रवि प्रकाश जी | सुख की अनुभूति उसे नहीं हो सकती जिसने पहले
कष्ट नहीं उठाये हो | इसी प्रकार अँधेरे से उजाले में आने पर ही उजाले का अहसास होता है | हार्दिक बधाई
आदरणीय प्रदीप जी, सुंदर सरल रचना प्रस्तुति पर, हार्दिक बधाई
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