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राह के वो हाशिये थे.....

राह के वो हाशिये थे एक पल में हट गये 
रास्ते चौड़े हुए तो पेड़ सारे कट गये 


एक है चेहरा हमारा और खूं का रंग भी 
क्या रही मज़बूरी जो हम मज़हबों में बंट गये 


ग़मज़दा हूँ मैं कि मेरे पैर में जूते नहीं 
क्या गुज़रती होगी उसपे पांव जिसके कट गये 


न रहे दादा न दादी जो रटाये राम- राम 
देखकर माहौल घर का, तोते गाली रट गये 


रिज्क़ की तंगी कुछ ऐसी हो गई अब गाँव में 
औरतें तो रह गईं पर मर्द काफी घट गये 


ज़िन्दगी के क़ीमती लम्हे मिले थे जो हमें 
कुछ तकब्बुर और कुछ हिर्सो हवस में कट गये 


मक्खियों को देखकर सीखा है 'साहिल' ने बहुत 
जिस तरफ़ सत्ता की देखी चाशनी, वो सट गये 

.
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by वीनस केसरी on July 15, 2013 at 12:11am

रिज्क़ की तंगी कुछ ऐसी हो गई अब गाँव में 
औरतें तो रह गईं पर मर्द काफी घट गये 


वाह वा
कवाफ़ी को जिस शानदार अंदाज़ में निभाया गया है उसकी जो तारीफ़ की जाए कम होगी ...
एक और बेहतरीन ग़ज़ल के लिए ढेरो दाद कबूल करें .....

Comment by vijay nikore on July 13, 2013 at 10:32am

//ग़मज़दा हूँ मैं कि मेरे पैर में जूते नहीं 

क्या गुज़रती होगी उसपे पांव जिसके कट गये //

बहुत ही सुन्दर खयाल पेश किया है, आदरणीय। बधाई।

सादर,

विजय निकोर

Comment by बृजेश नीरज on July 12, 2013 at 4:56pm

आदरणीय इस सुन्दर प्रयास के लिए आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय अनन्त जी के कहे पर ध्यान दें।
सादर!

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 12, 2013 at 12:02pm

आदरणीय सुशील जी आपने ग़ज़ल की बहर २१२२, २१२२, २१२२, २१२ रखी है, किन्तु कुछ शे'र बहर से भटके हुए हैं. एक बार पुनः देख लें जैसे :- बहरहाल प्रयास हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.

एक है चेहरा हमारा और खूं का रंग भी 
क्या रही मज़बूरी जो हम मज़हबों में बंट गये  ... ये शेर बहर में नहीं है.

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Comment by Sumit Naithani on July 12, 2013 at 9:51am

sunder 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 9:43am

सुन्दर ग़ज़ल हुई है आ० सुशील जी 

यथार्थ बखान करते कई अशआर बहुत पसंद आए ..........हार्दिक बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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