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एक क्षण ,

मैंने उस फूल की पंखुड़ी को होठों से,
सहला भर दिया था 
सिहर गयी थी शाख,
जड़ की गहराईयों तक,
हिल उठी थी धरा,
भौंचक था आसमाँ  भी
उस पल 
कितना सहम गया था बागवाँ,
तब, ठिठक कर रुक गया था,
जिंदगी का कारवाँ,
लगा-
कहीं  कोई भूल तो नहीं हो गई,
उफ़!
मैंने तो बस सराहा था, 
ऐसा तो नहीं चाहा था . 
 मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment by Sumit Naithani on July 3, 2013 at 2:56pm

sunder prstuti

Comment by ram shiromani pathak on July 2, 2013 at 9:25pm

आदरणीय ललित जी,बहुत सुन्दर प्रस्तुति///हार्दिक बधाई 

Comment by Dr Lalit Kumar Singh on July 2, 2013 at 5:42pm
रविकर जी 
 सादर  आभार 
आदरणीय 
Comment by Dr Lalit Kumar Singh on July 2, 2013 at 5:41pm
आभार आपका 
सादर 
Comment by Dr Lalit Kumar Singh on July 2, 2013 at 5:40pm
सादर आभार 

 

Comment by coontee mukerji on July 2, 2013 at 4:08pm

दिल की गहराई से निकली यह भावना और  कविता बनकर समय के पन्नों पर अंकित हो गयी. आदरणीय  ललीत जी कभी कभी जीवन में ऐसे पल भी आते हैं.......जब महज एक निश्छ्ल सराहना जी का जंजाल बन जाता है.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 2, 2013 at 2:58pm

आदरणीय ललित जी गहन भावों से सम्रद्ध प्रस्तुति पर बस यही कहूँगी वाह!!! 

Comment by रविकर on July 2, 2013 at 11:14am

वाह भाई वाह-
दिल की गहराइयों से प्रसंशा
आभार आदरणीय-

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